गुरुवार, 30 जून 2022

 सावन की पहली फुहार कर जाती मन हर्षित हर बार

मिट्टी की सोंधी खुशबू बिखर जाती फिज़ा में हर बार
अंगार सरीखी धरा पर जब पड़ती पहली बौछार एक बार
तप्त तवे को जैसे जल की बूंद करती शीतल हर बार
खेत -खलिहान हुलस पड़ते जब उन पर गिरती प्रथम बौछार
सम्पूर्ण धरा जो रही थी झुलस ,निखर उठती पाकर शीतल वयार
नर -नारी ,पशु -पक्षी सब थे व्याकुल बरसते अंगारों से
खिल उठे सबके चेहरे सावन के पहले -पहले छींटों से
रोशी--
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सोमवार, 27 जून 2022

 ज़िंदगी में क्यूँ इतनी भागम-भाग हो गयी है

सूर्योदय के साथ ही रोज़ दिखती सरेआम है
बालक स्कूल,ट्यूशन और,माँ-बाप दफ्तर जा रहे हैं
बुजुर्ग पार्क जा रहे ,कर्मचारी काम पर जा रहे हैं
किधर भी नज़र ना आता ,बैठा कोई भी सुकून से
कोई भी,बतियाता ,हँसता -खिलखिलाता दिखता ना सुकून से
यह जिंदगी का मंज़र दिखता है रोज़मर्रा में सभी को यकीन से
कुछ पल अपने लिए गुजार लो बेफिक्री से..क्या मालूम कल मिले ना मिले तुमको नसीब से
अपनी खुशी के लिए भी बचा कर रखो नित कुछ लम्हे ,जिन पर हक़ हो सिर्फ तुम्हारा ही पूरी शिद्दत से

रोशी --

रविवार, 26 जून 2022

 आजकल हर इंसान में उबासी ,निद्रा दिन में भी दिखती है

रात्रि ज़्यादातर हर किसी की सोशल -मीडिया के सहारे ही कटती है
कार्य -छमता कम और ज़िंदगी ऊलजलूल हरकतों में ही कटती है
बच्चे -बूड़े सब हो रहे अभ्यस्त सबकी इसके साथ छनती है
जो रहते इससे दूर कामयाबी उनके साथ चलती ही है
दोष देते हैं बड़ी आसानी से किस्मत को ,अपनी गलती नहीं दिखती है
जब जागोगे रात भर उल्लू की मानिद,तो जीवन का लक्ष्य क्या पाओगे ?
बुजुर्गों के अनुसार जीवन जियो ,कामयाबी के परचम लहराओगे

रोशी--

शनिवार, 25 जून 2022

 हर गुजरता दिन सिखा जाता है कुछ नवीन ,अद्भुत सीख

दे जाता है बेहतरीन तजुर्बे ,कुछ अकल्पनिए सुंदर सीख
पशु -पक्षी ,बालक -बुजुर्ग ,कुदरत सब ही तो होते हैं हमारे गुरु
हर पल सिखाते हैं हमको जीने का नज़रिया ,जब से होती है हमारी ज़िंदगी शुरू
एक मुश्किल वक़्त ,हालत पर होता है जीने का सबका फलसफा अलग -अलग
क्या बेहतरीन रास्ता चुनते हैं अपने वास्ते ये हमको बना देती है अलग -थलग
परिवार ,समाज ,दोस्त-दुश्मन सभी से मिलता है हमको जीने का नवीन रुख
हमने कब क्या फैसला लिया ,बस यह तजुरबा बदल देता हमारे जीने का रुख
रोशी

गुरुवार, 23 जून 2022

 जगविदित है कि हम अपने कुछ गम और खुशी सांझा नहीं कर सकते हैं

कभी सामाजिक ,कभी मानसिक कई प्रकार के दवाब हमको मजबूर करते हैं
जब चाहा हंस लिए ,जब चाहा रो दिये ,पर उनको हम दूजे से बाँट नहीं सकते हैं
आखिर ऐसा क्यूँ होता है ?जब हम दिल और दिमाग के हाथों मजबूर हो जाते हैं
जग में दूंदने निकले तो सबको अपने जैसा ही पाया ,दिल-दिमाग से मजबूर पाया
हर इंसा को अपनी बन्दिशों में जकड़े पाया खुद के ,मकड़-जाल में उलझा पाया
जितने हम आधुनिकता की दौड़ में भाग रहे हैं उतने ही इस जाल में उलझ रहे
परिवारों ,रिश्तों ,अपनों को तो पीछे घर ,गांव में छोड़ आए हैं ,खुद में ही घिरे रहे
सांझा परिवार होते थे ,सारी परेशानियों का गूगल सबके पास अपने ही होते थे
हर सुख -दुख मिनटों में बंट जाते थे ,दिल -दिमाग में बस खुशियों के ढेर होते थे
सब कुछ पीछे छूटा ,और हम खुद अपने बनाए जाल में घिरते चले गए थे
रोशी --
May be a black-and-white image of nature
Aditi Goel, Richa Mittal and 5 others
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ज़िंदगी को बहुत करीब से देखा है हमने
ढेरों उतार -चड़ाव होते रोज़मर्रा में देखा है हमने
जो जीते थे शाही अंदाज़ में ,ख़ाक में मिलते देखा है हमने
अपने नकली खोल में सिमटे बहुतेरों को देखा है हमने
जो जिये जा रहे थे क्रिटिम आवरण ओड़े उनकी उतरन को उड़ते देखा हमने
चादर से निकाले जिसने भी पाँव उसको जमीं चाटते देखा हमने
ढेरों रिश्तों को रंग बदलते ,और खून सफ़ेद होते देखा है हमने
जिनके पाँव ना टिके कभी जमीन पर खजूर के पेड़ पर अटकते देखा है हमने
जिन पर था खुद से ज्यादा भरोसा रातों -रात दल बदलते देखा हमने
क्या तुझको बताएं ए ज़िंदगी आईने में अपने ही अक्स को रंग बदलते देखा हमने
रोशी --
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