गुरुवार, 23 जून 2022

 जगविदित है कि हम अपने कुछ गम और खुशी सांझा नहीं कर सकते हैं

कभी सामाजिक ,कभी मानसिक कई प्रकार के दवाब हमको मजबूर करते हैं
जब चाहा हंस लिए ,जब चाहा रो दिये ,पर उनको हम दूजे से बाँट नहीं सकते हैं
आखिर ऐसा क्यूँ होता है ?जब हम दिल और दिमाग के हाथों मजबूर हो जाते हैं
जग में दूंदने निकले तो सबको अपने जैसा ही पाया ,दिल-दिमाग से मजबूर पाया
हर इंसा को अपनी बन्दिशों में जकड़े पाया खुद के ,मकड़-जाल में उलझा पाया
जितने हम आधुनिकता की दौड़ में भाग रहे हैं उतने ही इस जाल में उलझ रहे
परिवारों ,रिश्तों ,अपनों को तो पीछे घर ,गांव में छोड़ आए हैं ,खुद में ही घिरे रहे
सांझा परिवार होते थे ,सारी परेशानियों का गूगल सबके पास अपने ही होते थे
हर सुख -दुख मिनटों में बंट जाते थे ,दिल -दिमाग में बस खुशियों के ढेर होते थे
सब कुछ पीछे छूटा ,और हम खुद अपने बनाए जाल में घिरते चले गए थे
रोशी --
May be a black-and-white image of nature
Aditi Goel, Richa Mittal and 5 others
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ज़िंदगी को बहुत करीब से देखा है हमने
ढेरों उतार -चड़ाव होते रोज़मर्रा में देखा है हमने
जो जीते थे शाही अंदाज़ में ,ख़ाक में मिलते देखा है हमने
अपने नकली खोल में सिमटे बहुतेरों को देखा है हमने
जो जिये जा रहे थे क्रिटिम आवरण ओड़े उनकी उतरन को उड़ते देखा हमने
चादर से निकाले जिसने भी पाँव उसको जमीं चाटते देखा हमने
ढेरों रिश्तों को रंग बदलते ,और खून सफ़ेद होते देखा है हमने
जिनके पाँव ना टिके कभी जमीन पर खजूर के पेड़ पर अटकते देखा है हमने
जिन पर था खुद से ज्यादा भरोसा रातों -रात दल बदलते देखा हमने
क्या तुझको बताएं ए ज़िंदगी आईने में अपने ही अक्स को रंग बदलते देखा हमने
रोशी --
May be an image of text that says 'Stock'

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