शनिवार, 10 सितंबर 2011

मन की बेचैनी

मन पता नहीं कहाँ रहता है ? 
हर बक्त कुछ दूंडता रहता है 
अबूझे सवाल पूछता रहता है 
हर पल आशंकाओ में घिरा रहता है 
कुछ बुरा न हो इसी दर में जीता रहता है 
क्यूंकि हो चुका है सब कुछ घटित बुरा उसके साथ 
अब और कुछ न हो इसी में डूबा रहता है 
क्या करे वो, कैसे संभाले इस दिल को 
कुछ भी न होता जबाब है उसके पास 
ये तो बस डरता रहता है, परेशा करता रहता है ..


2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

भ्रम छोड़ें, उन्मुक्त जियें।

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

होता है कभी-कभी...मन को छूने वाली रचना...

  जिन्दगी बहुत बेशकीमती है ,उसका भरपूर लुफ्त उठाओ कल का पता नहीं तो आज ही क्योँ ना भरपूर दिल से जी लो जिन्दगी एक जुआ बन कर रह गयी है हर दिन ...