बदल रहे हैं त्योहारों के मायने ,मनाने का तौर -तरीका
हर त्योहार खोता जा रहा है वास्तविक रंग -रूप और तरीका
अपनी सहूलियत के हिसाब से आज के युवा मना लेते हैं
सब हैं इतने मसरूफ़ कि वक़्त के बनते जा रहे गुलाम हैं
पारंपरिक रीत -रिवाज सब होते जा रहे विलुप्त अब परिवारों से
आधुनिकता की भाग -दौड़ ने छीन ली हैं सारी जीवन की सारी रंगीनियाँ
थकी ,पस्त ज़िंदगी ने बेदम कर दिया है हमारी अगली पीड़ी की खुशियाँ
ना कोई उत्साह बचा होली ,दिवाली ,राखी का ,रह गया है सिर्फ लीक पीटना
भावी नस्लें क्या जानेंगी ,?सिर्फ इतिहास ही बयां कर सकेगा रीत रिवाजों का सिमटना ,उनके वजूद का मिट जाना और किताबों में समिट जाना .....
रोशी --
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