सोमवार, 18 अगस्त 2025

 हम स्वतंत्रता दिवस पूरे जोशो खरोश से मना रहे हैं

बेशक हम अंग्रेजों की गुलामी से तो आजाद हो गए हैं
धर्म ,जाति की जंजीरों में हम बुरी तरह जकड़े हुए हैं
बेटियां तो जन्मते ही वहशियों की नज़रों में खटकती हैं
बहुओं के सपने ससुराल की लपटों में खाक हो रहे हैं
बेटे भी खुद को सुरक्षित ना मान बेबजह दम तोड़ रहे हैं
क्योँ नहीं एक सुन्दर ,स्वस्थ समाज की हम कल्पना नहीं कर रहे हैं ?
विश्व पटल पर हिंदुस्तान स्वर्ण अक्षरों में लिखा हम क्यों नहीं देख पा रहे हैं ?
--रोशी


 त्यौहार जिन्दगी में रंग बिखराते हैं ना कि तकलीफें

हम क्योँ अपनी खुशिओं में गैरों को देते हैं तकलीफें
त्यौहार कुछ इस तरह मनाते हैं कि गैर धर्मों का उड़ाते हैं मजाक
अपनी मर्यादा बिसरा कर गैरों का करते हैं भरपूर अपमानऔर तिरस्कार
हर धर्म सिखाता है अहिंसा ,प्रेम ,मोहब्बत और भाईचारा का पाठ
कत्लेआम ,तोड़फोड़ ,हिंसा,आगजनी कोई धर्म है नहीं सिखाता
गर समझ लिया धर्म को गहराई से तो जो है प्रेम का पाठ पढाता
--रोशी


 शीशे के कीमती गुलदान की मानिद होती है लड़की की इज्ज़त

सहेज कर रखना है बेहद जरूरी, बेशकीमती जेवर जो है अस्मत
मामूली सी ठेस,अक्स छोड़ देती है गहरा, जिसकी भरपाई है ताजिंदगी मुश्किल
एक खरोंच गहरे ज़ख्म दे जाती है शीशे पर ,किरचें समेटना होता बड़ा मुश्किल
सीता ने ही दी थी अग्निपरीक्षा अपनी नेक किरदारी,ज़मीर की सारे ज़हां को
बेटियों को रखना पड़ता है ताउम्र ,हर कदम फूंक -फूंक कर दिन और रात
सम्हालना होता है शीशे का गुलदान शदीद एहतियात से इज्ज़त के साथ
दुनिया भरी पड़ी है शोहदों , दहशतगर्दों ,हैवानों और गिद्धों से हर कदम पर
आत्मा विदीर्ण हो उठती है जब बेटियों की अस्मत लुटती है बेदर्दी के साथ
बेशक चाँद पर क्यों ना पंहुंच जाए बेटी अनहोनी वहां भी हो सकती है उसके साथ
--रोशी 


 सम्पूर्ण विश्व युद्ध की आग में जल रहा है

एकदूजे की सत्ता हथियाने में लगे हैं
इन्सान की जिन्दगी बेमोल हो गयी है
अनाथ बच्चों ,विधवा स्त्रिओं की संख्या में इजाफा हो रहा है
किसको फ़िक्र है इन सबकी ?बस मिजाइलों पर निशाना है
गरीब देशों की मजबूरी का फायदा सब मिल कर उठा रहे हैं
हालत बद से बदतर और इन्सान गाजर मूली सामान काटे जा रहे हैं
परमाडू बम की तबाही का सबक हिरोष्मा -नागासाकी को बिसरा बैठे हैं
तबाही का खामियाजा जापानी आज तक अपनी नस्लों में चुका रहे हैं
इंसानी जिन्दगी पर पूरी राजनीति और घटिया सौदेबाजी सब नेता कर रहे हैं
--रोशी


 किस दिशा की ओर जा रही है नारी जाति?बेटी ,पत्नी और बहिन

ममता ,प्रेम ,सहनशीलता जैसे गुणों का हो गया समूल उनमें पतन
क्या विदेशी सभ्यता का प्रादुर्भाव है ?कमी रह गयी है हमारे संस्कारों की
मर्यादा की सीमाएं लाँघ बैठी है बेटियां,भूल बैठी हैं परवरिश मां -बाप की
परिवार,सात जन्मों का बंधन बिसराकर लक्ष्मण रेखा लाँघ रही हैं बेटियां
शिक्षा,आज़ादी का दुरुपयोग ,निज संस्कार ,विदेशी सभ्यता अपना रही हैं बेटियां
आसमां छुओ ,पंखों को फैलाओ, पर पाँव ज़मीन पर जरूर रखना सिखाना होगा
बेटियों को परिवार,विवाह,मातृत्सव सरीखी शिक्षा भीअब नियमित सिखाना होगा
--रोशी 


मायके आते वक़्त बेटियां चुपके से बाँध लाती हैं पल्लू में कुछ अनमोल दाने
वापसी पर रोप जाती हैं पीहर की दहलीज पर खुशियों की फसल बसअनजाने
पीहर की दीवारें ,चौबारा सब बोल पड़ते हैं यकायक यूँ ही बिटिया से
तक रहे थे कब से राह तुम्हारी ,बेसब्री से कहाँ थीं तुम? ,पूछते हैंसब बिटिया से
मां के हाथों से बनी एक सुखी रोटी भी दे जाती अनुपम,अद्भुत स्वाद बिटिया को
बचपन का स्वाद यकायक संतुष्ट ,तृप्त आज कर गया जी भर कर बिटिया को
भाई की सलामती,मां की लम्बी उम्र की दुआएं मन ही मन दे जाती हैं बेटियां
मायके की खुशहाली के सजदे मन ही मन पड़ जाती हैं हमारी लाडली बेटियां
खुशियों की सौगात देने ,जिन्दगी के कुछ अनमोल पल गुजारने आती हैं बेटियां
कुछ लेने नहीं ,बेमकसद बस प्यार की डोर से खिंची चली आती हैं यह बेटियां
--रोशी 



देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान
कितना बेरहम ,हिंसक ,निर्दयी हो गया इन्सान
धर्म ,जात-पांत के मकड़-जाल में उलझ गया इन्सान
मानवता ,संस्कार ,इंसानियत सब कुछ बिसरा बैठा इन्सान
भाई-चारा,प्रेम का पाठ पड़ाया हर धर्म ने सदेव इन्सान को
दरिंदा बन बैठा ना जाने कहाँ से इन्सान एक दूजे की नस्ल मिटाने को
माँ की कोख,पत्नी का सुहाग उजाड़ने में तनिक ना सोचते यह बेगैरत इन्सान
धर्म के नाम पर सिर्फ आतंकवाद का पाठ पढ़ रहे दुनिया में अब ढेरों इन्सान

--रोशी 






 घर नज़र आता है घर जब तक रहती है उसमें औरतरसोई महकती है,

बर्तन खटकते हैं जब होती है घर में औरत

रस्सी पर दिखती है लाल,हरी चूनर,साड़ी जब होती है घर में औरत

कुछ ना कुछ आवाजें ,खटपट होती ही है जब होती है घर में औरत

बच्चे ,बुडे सब सम्हाल लेती है बाखूबी जब होती है घर में औरत

घर में जाला,कूड़े के ढेर नज़र ना आते जब घर में होती है औरत

आईने की माफिक चमकता है घर -आँगन जब घर में होती है औरत

साफ़ कपडे ,कलफ प्रेस के दिखते परिवार के जब घर में होती है औरत

घर भूतों के डेरे माफिक लगने लगता है जब उसमें ना रहती है कोई भी औरत

--रोशी 

  हम स्वतंत्रता दिवस पूरे जोशो खरोश से मना रहे हैं बेशक हम अंग्रेजों की गुलामी से तो आजाद हो गए हैं धर्म ,जाति की जंजीरों में हम बुरी तरह जक...