तिल तिल जीना
तिल तिल कर कैसे जीया जाता है जानती है वो सब वाखूवी ..............................................................
जिया जो है उसने सूनी आंखो से तकते,विस्तृत आकाश को , ढूंढा है उसमे कोई अपना?
पर गुजर गई सारी रात तकते आसमान को
रात्रि का गहन था अंधकार
फैला था जो चहु ओर
नजर आया ना कोई चाँद ,करता अठखेलिया प्रियतमा के साथ उस ओर
तारे भी जैसे लील गया था रात्रि का गहन अंधकार ठीक वैसे ही लग रहा था उसको अपना जीवन संसार ना कही था कोई खुशियों का सवेरा ना थी भोर की कोई उजास पर हाँ अंधरे में भी जिया जा सकता है जानती है वो
बाखूवी निशिदिन
ऋतु बदली,माह बदला पर ना बदला उसका अपना जीवन
सब कहते है दिन बहुरते है सबके पर यह अंधकार ही बन गया है अब उसका जीवन .....
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