बहकाबे
केकई कैसे फंसी मंथरा के मकड़ जाल में और विसरा दिया
समान्त पुत्र प्रेम
एक पल में ही धाराशाही हो गया वो स्नेह और संतान प्रेम
बचा ना था आज कोई प्रीत के धागों का कतरा
मान भी राम से ले रही थी वो सारी पिछली ममता नेह का हिसाब भी
हाँ ! यही तो पढ़ा था बालपन से किताबों में हमने
सोचते रहे ताउम्र कि कैसे भूला देता है वो अपने
पल भर में ही निर्मोही ,निष्ठुर वक्त का झंझावत
ही बना देता है
अब दुनिया परखी और समझ आया कि हाँ सब
कुछ हो सकता है कभी भी
टूट जाते है पलमान में नेह के अटूट और अनूठे बंधन
बहकाबे की व्यार पल में उड़ा सकती है बरसों का बंधन
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