जंजीर
हर वक्त चाहा जंजीर को तोड़ना
पर जंजीर थी शरीर के इर्द गिर्द
हमारे सपने,हमारी खुशियाँ सब थी इनमे सिमटी
बस में ना था इनसे बाहर निकलना
जब भी जोर लगा कर चाहा तोडना
तब और भी मजबूती से देखा उनको लिपटे हुए
कोई कैसा ,चाह कर भी इनको कैसे तोड़े
ना समझ पाई अब तक,रहे उत्तर अबूझे
कभी परिवार कभी समाज कभी मेरे अपने समझाते बहलाते ,
डराते रहे ना करना तोड़ने की जरूरत
हम भी यूँ ही बहकावे,झांसे में शिददत से उनकी आते रहे
पर जिसने भी तोडा,कालजयी बना और समाज को हिलाया .............
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