शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

रात का सन्नाटा

रात का सन्नाटा था पसरा हुआ
चाँद भी था अपने पुरे शबाब पर 
समुद्र की लहरें करती थी अठखेलियाँ 
पर मन पर न था उसका कुछ बस 
यादें अच्छी बुरी न लेने दे रही थी चैन उसको 
दिल को सुकून देने का था तमाम बंदोबस्त वहां 
पर दिमाग को था न जरा भी चैन वहां 
उसके अनगिनत घाव थे और आत्मा थी लहुलोहान 
सबको मौसम रहा था लुभा और था बहुत हसीन
पर जो बबंडर दिल में उठ रहा है उसका क्या ? 
मन को ना आये खुबसूरत चाँद और उठती समुद्र की लहरें 
क्यूंकि विदार्ण आत्मा ने तो बना दिया हर जख्म सूल 
बहती बयार सुंदर समां कुछ भी न खुश कर सका उसको 
बस ये सब था उसके मन के लिए एक धूल.. 

























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