दंश चुभाती शीत लहर ,हाड कंपाती ठंडक
गरीब ,बेघर इंसान पे क़यामत है बरपाती बेधड़क 
फूस के छप्पर को चीरकर जब अन्दर है आती शीतल बयार 
नाम मात्र की कथरी में छुपा बैठा होता है गरीब का पूरा परिवार 
कैसे कटती है रात सोचना भी है बहुत दुश्वार रजाई में दुबके इंसानों को 
मत ले इनके सब्र का पैमाना ,वैसे ही होते हैं यह बेचारे कुदरत से तडपाये 
पेट की भूख इतनी तकलीफ नहीं देती जितने डंक चुभाती है शीतल हवाएं
बड़ा ही कष्टप्रद होता पूस का महीना बेघर ,गरीब बिन वस्त्रों के इंसानों के वास्ते  
इंसान के साथ लावारिस जानवरों पर भी है टूटता कहर ,, शब्द ना हैं इसके वास्ते 
                                                                                                   --रोशी
