रविवार, 14 जुलाई 2024

 

अंध विश्वास में कभी जीवन ,कभी बेटियां ,कभी लगती घर की इज्ज़त दांव पर                                                         आंख मूंद लगा देते सब कुछ बिन सोचे -समझे किसी धूर्त ,पाखंडी के ऊपर
श्रधा ,विश्वास जरूरी है बेहतरीन जीवन जीने के लिए ,आवश्यक है जीने के लिए
स्वयं और परिवार की सुरक्षा का दारोमदार भी होता नितांत जरूरी जीवन के लिए
गुनाह हम खुद करते हैं खुद को सौंप बिन सच्चाई की तलहटी तक जाने बूझे
निज जिन्दगी ,परिवार को लगा देते दांव पर खुद अंधी खाई में कूदकर ऐसे
--रोशी

 

भीषण ताप से व्यथित हो हमने मानसून की गुहार की थी प्रभु                                                                          आपने पीड़ा हमारी मिटाने के साथ तकलीफें हमारी बडा दीं प्रभु
घनघोर मेघों ने समस्त जनजीवन तितर -बितर कर दिया प्रभु
खेत खलिहान,नौकरी ,रोज़गार सब कुछ हो गया अस्तव्यस्त प्रभु
ना रही सर पर छत ,तन पर वस्त्र ,पेट में ना अन्न का दाना प्रभु
बिखर गए परिवार ,हुए बेहाल पशु -पक्षी दरक गया सब ढांचा प्रभु
बीमारी ,तकलीफों ने किया बेहाल गरीबों का लुट गया सब चैन प्रभु
कच्ची दीवारें न झेल सकीं मेघों का रौद्र रूप ,भरभराकर हुईं नेस्ताबूत प्रभु
प्रकृति की मार झेलता गरीब है कुछ तो उस पर दया करो प्रभु
--रोशी
















 

मां-बाप बाल्यावस्था से बालक का मार्गदर्शन करते हैं                                                                                        जवान होते ही अब जन्मदाता राह की रूकावट लगते हैं
मौज मस्ती ,गलत सोहबत पथभ्रष्ट कर देती है जीवन को
पालक से ज्यादा कौन नेक राह बता सकता है बालक को
आधुनिकता की आंधी में लगती सब बेबुनियाद बातें अपनों की
जब ठोकर लगती गहरी तो शिक्षा याद आती जन्मदाता की
निस्स्वाथ दुनिया में मां बाप ही औलाद की सोचते बेहतरी उसके जीवन में
वृधावस्था में लगते फ़िज़ूल वो परिवार में ,समेट दिया जाता वजूद उनका जीवन में
अद्भुत गुडों की खान होते हैं वो स्वयं में , सीख लें गर उनसे कुछ जीवन में
यूँ ही नहीं किये होते माता पिता ने बाल अपने सफ़ेद खुद के जीवन में
जब उलझती जीवन की गुत्थी तो याद आती उनकी अहमियत जीवन में
--रोशी

 

 सारी जिन्दगी फटे कपड़ों में पैबंद लगा चालाकी से दुनिया से छुपाती रहती है
राशन के खाली डिब्बों को ना जाने कहाँ से जुगाड़ से भर्ती रहती है
बच्चों ,पति को खिलाकर भूख नहीं कह हमेशा झूठ बोलती रहती है
सब्जी वाले से मुफ्त धनिया -मिर्च के लिए झिक -झिक करती आई है
परिवार पर आये संकट की खातिर चौराहे पर पीपल पर धागा बांध आती है
बच्चे की हर बीमारी का झट चुटकी में इलाज उसके पास मौजूद है
दूध -दही की व्यर्थ चिंता में जिन्दगी हर स्त्री की यूँ ही गुजर जाती है
पाई -पाई जोड़ने की खातिर रोज़ नई जुगत दूंढ ही लेती है
बच्चों की खातिर अपने शौक खवाबों को घर की अलगनी पर टांग देती है
घर की तकलीफें ,दुश्वारियां खूबसूरती से चाहरदीवारी के भीतर समेट लेती है दुनिया भर में ऐसी नायब क़ाबलियत सिर्फ और सिर्फ स्त्री में ही पाई जाती है
--रोशी


                                                                                                                                                                        मां -बाप को नज़र के सामने अशक्त होते देखना कितना तकलीफ देह होता है जिनकी आवाज़ से चकता था घर -आँगन उनका यूं मौन हो जाना चुभता है चलना सिखाया था जिन्होंने ऊँगली पकड़ आज बिन सहारे कदम ना चलते एक एक शब्द सिखाया था जिन्होंने जतनों से आज उनका ज्यादा बोलना अखरता है जिनके हर फैसले होते थे पत्थर की लकीर आज उनका हर मशवरा बेमानी लगता है रसोई महकती थी जिनके सुस्वादु भोजन से आज कांपते हाथों से दो निवाले खाते हैं हमारे पालन पोषण में गुजार देते जो जवानी अपनी आज इतने बूड़े लगते हैं जो माँ रोज़ सजाती थी खुद को सिन्दूर और महावर से रंगों से नाता तोड़ देती है पिता जो जाते थे तैयार हो दफ्तर दो जोड़ी कपड़ों में सिमट जाते हैं उम्र का तकाज़ा,जिम्मेदारियों का बंटवारा ,नई नस्ल से अलगाव कर देता अशक्त है जन्मदाता को यूं बूडा ,लाचार ,परआश्रित देखकर दिल दिमाग परेशां होता है

--रोशी
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                                  दिनचर्या   सुबह उठकर ना जल्दी स्नान ना ही पूजा,व्यायाम और ना ही ध्यान   सुबह से मन है व्याकुल और परेशा...