शनिवार, 4 जनवरी 2025



विगत कुछ वर्षों से युवा पीड़ी अब धार्मिक ज्यादा होती जा रही है
सपरिवार तीर्थ स्थानों का भ्रमण पिकनिक सरीखा बनता जा रहा है
तीर्थों को अब पर्यटन के साथ जोड़कर नया रूप अब समाज में आ रहा है
यही कारण है कि हर उत्सव पर तीर्थों पर भीड़ नियंत्रण से बाहर हो रही है
पूजा-पाठ अंधविश्वासों में ना पड़कर बच्चे मस्ती के साथ कर रहे हैं
आनंद के साथ देशाटन कर रहे हैं ,जीवन का सम्पूर्ण सुख उठा रहे हैं
पर्यटन को तीथों के साथ जोड़ युवा पीड़ी मंदिरों ,गुरद्वारों के दर्शन कर रही है
सिर्फ मंदिर मस्जिद ही ना जाकर सम्पूर्ण छेत्र भी घूमकर अब युवा आ रहे हैं
--रोशी

 


एक गरीब मजदूर शायद सबसे ज्यादा मेहनत करता है प्रतिदिन
दिहाड़ी रोज़ की सबसे कम ही पाता है वो यह है शायद उसका नसीब
मेहनत के साथ किस्मत का महत्वपूर्ण किरदार होता है जिन्दगी में
किस्मत किसकी चमकेगी और कब ? यह हमारी होता है नियति में
पूरी उम्र कट जाती है कंगाली में ,मेहनत करते करते हालात ना होते तब्दील
लाखों में कोई एक किस्मत का धनी बन पाता है टाटा -अम्बानी जैसा अमीर
मेहनत ,किस्मत ,नियति सरीखी ढेरों चीजें जरूरी हैं एक साथ होना जिन्दगी में
थोड़ा बहुत बदलाव होता हमारे हाथ में बदलने को अपनी हाथ की लकीरों में
--रोशी 


 नव वर्ष में कुछ नया कर दिखाना है ,जीवन में कुछ बदलाव करना है
दोस्तों की गिनती में कुछ और इजाफा करना है ,जिन्दगी में शामिल करना है
हर लम्हा इस बेशकीमती जिन्दगी का खुल कर जीना है ,उसका आनंद लेना है
खुद से जो बन पड़ेगा दूसरों के लिए जरूर करेंगे ,जितना संभव होगा उतना करेंगे
व्यर्थ के विवादों से दूर रहेंगे, खुद के व्यक्तित्व पर पूरा ध्यान केन्द्रित करेंगे
जिन्दगी के बचे हुए लम्हे निज आनंद में गुजारेंगे,शांतप्रिय जीवन गुजारेंगे
जिन्दगी को बेहतर करने की भरपूर कोशिश करेंगे ,सुकून का जीवन जियेंगे
--रोशी


नव वर्ष के आगमन के लिए हम सब हैं बेकरार
पूरे तीन सौ पेंसठ दिन हम सब करते हैं बेसब्री से इंतज़ार
बिगत वर्ष में हमने क्या पाया ,जिन्दगी में कौन हमारी है आया
क्या -क्या गंवाया ?किसका वजूद हमने अपनी जिन्दगी से हटाया
पूरे वर्ष का लेखा -जोखा समझना है बहुत जरुरी भविष्य के लिए
पुरानी गलतियाँ ,तकलीफें ना दोहराएँ अब अपने सुनहरे भविष्य के लिए
हमारा अतीत ही है बेहतरीन शिक्षक हमारे आने वाले कल के लिए
जिन्दगी का पता नहीं जी लो इसको अपनी खुशियों के साथ
जो ख्वाब ,अधूरे बचे है बाकी ठान लो पूरा करने की नव बर्ष के साथ
--रोशी

 


 बेटे भी मासूम होते हैं दिल से ,सिर्फ बेटियां ही नहीं
माँ से अद्भुद जुड़ाव होता है उनका बचपन से
शायद व्यक्त नहीं कर पाते हैं अपने भाव ,अपना प्यार
रसोई में मां का हाथ नहीं बटा पाते हैं ,होते हैं कच्चे इसमें जन्म से
माँ की नई साड़ी ,चूड़ी से सजे हाथ ,माथे पर बिंदिया खूब भाती है उनको
पत्नी को भी उसी रूप में पसंद करते हैं जिस रूप में देखा था माँ को
मां ,बहन की बेहतरी के लिए जुट जाते हैं बचपन से ख़ामोशी के साथ
बेटियों की तरह बेटे भी जुड़े रहते है दिल से परिवार के साथ
--रोशी 


 गरीब ,बेसहारा इंसान हो या जानवर सर्द रात काटना है दूभर
विकट परिस्थिति में कैसे सांसे बरक़रार रखना है कोई इनसे सीखे
हीटर ,अंगीठी से भी जब हड्डियाँ हैं कडकडाती ,यह बेचारे कैसे जीते
सुबह का सूरज तो नसीब वालों को है मिलता ,गर रह गए वो जिन्दा
पूस की सर्द रात इंसान और जानवर दोनों को पड़ती है जिन्दगी पर भारी
नितांत तकलीफदेह होती है शीत लहर ,गुजरती है यह सब पर भारी
लू के थपेड़े इतना ना देते कष्ट, रूह को ना सताते ना होती तकलीफ सारी
--रोशी

 


दोस्ती के रिश्ते अनूठे ,और बेमोल होते हैं
यह रब नहीं बनाता ,यह रिश्ते हम खुद जोड़ लेते हैं
दिल ,दिमाग जब दोनों मिलते हैं हम अपना दोस्त दूंढ लेते हैं
आँख मिलते ही दिल के भीतर की हलचल जान लेते हैं
तत्काल पता लगते ही बेहतरीन समस्या का हल भी दूंढ लेते हैं
दोस्ती का रिश्ता टिका होता है एक रेशम की डोर पर परस्पर
यह धागा अद्रश्य और अनूठा होता है ,भेद ना पा सका कोई आज तक
ना रंग देखे ना जाति,अमीर- गरीब ना देखे ,ना देखे देश परदेस कभी
बस अपनी छवि मिलते ही दोस्त बना बैठते हैं इस दुनिया में सभी
--रोशी 



देश में धर्म के नाम पर त्योहारों की खुशियाँ सिमट रही हैं
धर्मगुरुओं ने निज स्वार्थ के लिए सबको विभाजित कर दिया है
जाति ,धर्म के नाम पर दिल से ,डर से सबको अलग- थलग कर दिया है
हर्षौल्लास सब सिमट कर रह गया है ,धर्म ने सबको बाँट दिया है
क्रिसमस ,ईद ,जन्माष्टमी ,गुरुपर्व जैसे पर्वों का सत्यानाश कर दिया है
मजहब का नाम लेकर गैर धर्मों के लिए इतनी नफरत भर दी है
डर ,खौफ से इंसान एक दुसरे की ख़ुशी में शामिल नहीं हो पा रहा है
क्योँ ना हम इन सबसे ऊपर उठकर एक दूजे की खुशियाँ बांटे
तीज त्यौहार मिलकर मनाएं ,,सर्वधर्म का सम्मान करें ,सबको खुशियाँ बांटे
--रोशी

 


 औकात से बढकर खर्चा ,सिर्फ बड़ा देता है बस जीवन में कर्जा
चादर से जिसने निकाले बाहर पैर ,बेशक हुआ समाज में उसका चर्चा
दावतें उड़ा ,खा -पी चले गए घर को सब ,मर गया वो चुकाते -चुकाते कर्जा
दिखावे की होड़ से परिवार को बचाना हो रहा है आजकल बेहद मुश्किल
बीबी -बच्चे सब भाग रहे रंगीन चकाचौंध के पीछे आँख बंद कर हर पल
ख्वाहिशें बड रहीं इतनी कि समझौते को तैयार नहीं कोई खुद अपने घर में
इंसान का जीना हो गया है मुश्किल आज के दिखावटी ,नकली दुनिया के दौर में
--रोशी 


बेटियां समझदार ,जिम्मेदार शायद कुदरतन ही जन्मती हैं
कहकहों ,खिलखिलाहट से घर को गुंजारमान रखती हैं
माँ बाप ,दादी बाबा की जान होती हैं ,भाई के सबसे करीब होती हैं
बिदाई के वक़्त पीहर हर कोने में बचपन की यादें बिखेर जाती हैं
रंगीन चूड़ियाँ ,क्लिप, घाघरा ,चुन्नी ,और बिंदी के पत्ते कोने में छुपा जाती हैं
रेशमी रुमाल ,रंग बिरंगे चित्र बनाये थे सहेलियों के साथ संदूक में बंद कर जाती हैं
पीहर को अनमोल दुआएं दिल से दे जाती हैं, संग मां बाप का दुलार ले जाती हैं
तकलीफदेह होता है घर आंगन छोड़ना ,पर बेटियां सदियों से यह करती आई हैं
--रोशी


वक़्त बदला,हालात बदले ,कुछ लोगों के ख्यालात ना बदले
जस के तस रहे उनके मिजाज़ ,हवाओं के बदलते रुख से भी वो ना बदले
सुना था उम्र बढने पर आदतें ,ख्यालात तब्दील हो जाते हैं पर वो नाकामयाब रहे
जैसी फितरत पाई जन्म से उन्होंने ,उम्र के आखरी दौर तक शिद्दत से वो निभाई
वक़्त के थपेड़े भी ना बदल सके मिजाज़ ,रंग बदलने में महारत थी उन्होंने पाई
चुगली ,कानाफूसी ,धोखाधड़ी जैसी खूबियाँ शायद थी उन्होंने जन्मजात पाई
दुनिया छोड़ डी पर स्वभाव में मरते दम तक जरा सी भी नरमी ना थी उन्होंने पाई
--रोशी 


 बारीक सुराखों से आती पूस की रात में शीत लहर को कोई कैसे जाने ?
फटी कथरी ,चिथड़ों से तन कैसे ढका जाता है कदाचित कोई कैसे जाने ?
जब सर पर ना हो छप्पर,पन्नी तो पूस की रात कैसे गुजरती है कोई कैसे जाने ?
मात्र एक गुदड़ी में पूरा परिवार कैसे सिमट जाता हैशीत काल में कोई कैसे जाने ?
आग की तपिश,अलाव के स्वप्न मात्र से लंबी रातें कैसे गुजरती हैं कोई कैसे जाने
नाममात्र के वस्त्रों के साथ हाड़ गलाती शीत लहर में हंसकर जीना कोई कैसे जाने
गुजर जाती है बेबस ,गरीब की जिन्दगी उसका तसुब्बर करे बगैर कोई कैसे जाने?
सहनशक्ति,बर्दाश्त की बेमिसाल ताक़त पाई इन लाचारों ने जो कोई कभी ना जाने
--रोशी

 


 कितना आरामदायक ,आसन ,साधारण जीवन जिया है हम सबने
जितनी आधुनिकता का जामा पहन रहे हैं हम जीना मुश्किल कर लिया सबने
नकली मुखौटे ,झूठी शान ,दिखावा बस रह गया है सबकी जिन्दगी में
प्यार ,अपनापन ,मिलनसारी हो गई गुजरे ज़माने की बातें परिवारों में
नौनिहालों का बचपन कुचल गया है ,मशीन बन कर रह गए हैं बच्चे
कठपुतली बना कर रख दिया है हमने, निज जीवन जीना भूल गए हैं बच्चे
दौड़ -भाग ,छुपम -छुपाई जानते नहीं बच्चे ,मोबाइल ने लील डाला सारा बचपन
कैसा बेमुरब्बती,,नकली जीवन जी रहा है आज का नौनिहाल और उसका बचपन
--रोशी

 


 कितनी योजनायें ,कल्पनाएं ,सपने देखते भविष्य के हम अपने हैं
भूल जाते हैं ,तनिक ख्याल नहीं आता कि हम तो मात्र कठपुतली हैं
डोरी तो हम सबकी रब के पास है हम तो बस रंगमंच के कलाकार हैं
हंसाता भी वही रुलाता भी वही है, यश -अपयश का सबब भी वही है
मौज -मस्ती के साथ मौजूदा हर पल का आनंद लो ,नियति तो हमारी तय है
भूत और भविष्य में ना उलझो इनका चक्रव्यूह गहन और अत्यंत गंभीर है
--रोशी


शादी-व्याह ,बर्थडे,नामकरण हर उत्सव का रूप बदल रहा है
दिखावा ,भव्य प्रदर्शन साल दर साल ,हर स्तर पर बड रहा है
मध्य वर्गीय इंसान कर्जा लेकर दिखावे की होड़ कर रहा है
तिनका -तिनका पूरी जिन्दगी जो पैसा जोड़ा वो लुटा रहा है
बेशक बाकी सारी जिन्दगी कर्जा उतारने में ही लग जाए
जन्म से लेकर मृत्यु तक हर कर्मकांड सिर्फ प्रदर्शनी मात्र बन गए
प्यार ,मोहब्बत ,निज सम्बन्ध सब आधुनिकता की भेंट चढ़ कर रह गए
हमने क्या कुछ नया पेश किया बस सब यह ही ताकते रह गए
आधुनिकता का चड़ा ऐसा रंग कि हम सब इसके रंग में रंग गए
--रोशी


सर्द रातें ,शरद बयार ,और शादियों की गहमागहमी
हर तरफ छाई मस्ती ,,सुस्वाद व्यंजन ,पीने पिलाने का दौर
फिजा भी रंगीन है दावतें का शोर है ,कर वस्त्रों में में नारियां ठंड को रही झुठला
झीने वस्त्रों में भी ठंड ना लगने का कर रही हैं दिखावा और रहीं हैं इठला
दावतें ,शादी व्याह में जाने की होड़ सी मची हुई है चाहे रिश्ता हो कोई दूर का
प्रेम मोहब्बत शायद पहले ही ख़त्म हो गया था अब लकीर पीटने को जा रहे हैं
खायेंगे पीयेंगे ,मौज मस्ती करेंगे कुछ देखेंगे कुछ खुद का प्रदर्शन करेंगे बस

--रोशी 



उम्र बढने के साथ रिटायर कर देते हैं हम अपने बुजुर्गों को
भजन ,सत्संग तक सीमित कर देते हैं उनके बाकी जीवन को
जरुरत पड़ने पर जब चाहे उनका इस्तेमाल कर लेते हैं बाखूबी
घूमना -फिरना ,सजना संवरना चाहते तो वो भी होंगे अभी तक
बचपन की गलियों से गुजरना चाहते जरूर होंगे वो भी आज तक
अरमान ,ख्वाहिशें,सपने बाकी तो रहते हैं सभी उम्र बढने के साथ
क्योँ दुनिया वक़्त से पहले बूडा ,अशक्त समझ लेती है ६० के बाद
उम्र ,तजुर्बों का भंडार होता इनके पास उम्र बढने के साथ ६० के बाद
--रोशी


ठहरी जिन्दगीं को नवरस की चाशनी में डुबा जाते हमारे त्यौहार
घर आँगन में आलोकित दीप जीवन में स्वर्णिम आभा बिखराते त्यौहार
चौबारे पर सजी रंगोली सप्त रंगों का देती अद्भुत अहसास बारम्बार
धूप-कपूर की महक ,गेंदा ,गुलाब की खुशबू बातावरण को कर देती सरोबार
दमकते चेहरे ,खिलता बचपन सभी को मन्त्र मुग्ध कर देते हमारे यह त्यौहार
--रोशी





 जीने का नजरिया ,रंग -ढंग ,द्रष्टिकोण सब बदलते जा रहे हैं
परम्पराएं ,तीज त्यौहार ,शादी व्याह के तौर तरीके बदलते जा रहे हैं
सुविधानुसार तारीख ,मुहूर्त खुद बा खुद निकाले जा रहे हैं
जब देखी जैसी सहूलियत फटाफट काम निपटाए जा रहे हैं
परिवार,कुटुंब पीछे छूटे हम फ्लैटों में सिकुड़ते जा रहे हैं
घरों में रह गए वृद्ध ,बच्चे महानगरों को भागे जा रहे हैं
इंसानी रिश्ते अब दरक कर हाय, हेल्लो तक सिमटते जा रहे हैं
कलयुग में अब हम दिवाली भी दो दिन की मना रहे हैं
वो दिन नहीं दूर अब हम सुविधानुसार होली- दिवाली मनाएंगे
तिथि ,मुहूर्त की ना होगी जरुरत ,खुद ही अपने फैसले करते जायेंगे
--रोशी 


 आज बाल दिवस है ,कोई उत्साह ,योजना दिखाई नहीं दिया
आने वाली नस्लों के लिए किसी सुधार ,परियोजना का कोई व्योरा ना दिखा
मिड डे मील देकर पहले ही बच्चों की शिक्षा का स्तर ख़त्म कर दिया
सिर्फ भोजन और बजीफे के चक्कर ने पढाई को ख़त्म कर दिया
युवा नस्ल को नरेगा की योजना ने कामचोर ,मक्कार बना दिया
कोई कानून बालकों की बेहतरी का नहीं दिखता ,ना किसी ने ध्यान दिया
बचपन से जवानी तक अब भारत का भविष्य निरक्षर और नाकारा ही दिखता
देश के नौनिहालों ,बालकों के उत्थान,बेहतरी का अब कोई खैरख्वाह नहीं दिखता
--रोशी

 


 जमाना कहता है कि हम बेरुखे हो गए
कभी बदलती फिजां पर गौर ना किया
मौसम के पलटते मिजाज़ को गर देखा होता ध्यान से
समझ आ जाता हम ऐसे आजकल क्योँ हो गए ?
चेहरों पर पड़ा नकाब हट गया ,आते-जाते रंग दिख गए
कल जो अपने थे आज हमसे कुछ यूँ जुदा हो गए
समझने लगे जब से ज़माने की बदलती फितरत
समझ आ जाता हम ऐसे आजकल क्योँ हो गए
--रोशी 

 



चाँद भी आज खूब इतराता है ,खुद की अहमियत सबको दिखाता है
जितना चाहे देखना दिल जल्दी ,उतनी मुश्किलात से नज़र आता है
टकटकी बांधें इंतज़ार में सुहागिनें बस देख रहीं आसमां को हजारों बार
नखरे दिखाना लाज़मी है चाँद का,शिद्दत से आज सभी को करना है उसका दीदार
शर्मा कर छुपे बदली में,कभी आसमां में गुम हो जाए ,लुका -छुपी रहे बरक़रार
शिद्दत से जब चाहो जिसको ,नखरे तो उठाने ही पड़ते हैं उसके बारम्बार
--रोशी

 




कब कौन सा मोड़ जिन्दगी में आ जाया अप्रत्याशित पता ना होता
पिछले जन्म के पाप -पुण्य का हमको कोई लेखा- जोखा पता ना होता
बहुत ना सही ,गर दिलों में रह गए कुछ अपनों के तो समझो जीवन सफल किया
यूँ तो जुदा हो जाते हमसे बहुतेरे ,शुक्र है रब का कुछ ने ही गर तुमको याद किया
ताक़त ,दौलत ना काम आयेगी ,बस इंसानियत का सबब गर तुमने पड़ लिया
दिलों में बरसों तक रह जाओगे गर इंसान में ईश्वर के स्वरुप को पहचान लिया
उदाहरण---रतन टाटा




त्योहारों का आगाज़ हो गया है ,फिजां खुशनुमा हो गई है
गणपति,दुर्गा की स्थापना,विसर्जन चहुँ ओर उत्सवों की बेला आ गई है
रावण के दमन का प्रतीक दशहरा त्यौहार से पंडाल खुबसूरत सजे हुए हैं
ढोल -नगाड़े ,मेले अनुपम छठा बिखेर रहे हैं ,बच्चों के हाथ खिलोनों से भरे हैं
घर चौबारे की सफाई ,रंगाई-पुताई में दिखते अमीर- गरीब सभी व्यस्त हैं
हैसियत अनुसार त्योहारों का उत्साह, खुमार छाया सभी पर समान है
--रोशी







बेटियों को वक़्त और हालात से जूझना सिखाएं
निजी तकलीफों पर सही फैसलों को अंजाम देना सिखाएं
बचपन में जरूरी है ऊँगली पकड़कर चलना सिखाना
खुद अपने पैरों पर बेटी को चलना जरुरी सिखाएं
बेहूदी फब्तियां और शोहदों से निपटना है कैसे सिखाएं
घुट कर जीने के बजाए खुली फिजां में हंस कर जीना सिखाएं
बराबरी का दर्ज़ा देना का जो ढोल पीटते हो उसको सच कर दिखाएं
बेटा और बेटी दोनों को बराबरी का दर्जा देकर बेटियों का भविष्य उज्जवल बनाएं
--रोशी

विगत कुछ वर्षों से युवा पीड़ी अब धार्मिक ज्यादा होती जा रही है सपरिवार तीर्थ स्थानों का भ्रमण पिकनिक सरीखा बनता जा रहा है तीर्थों को अब पर्यट...