मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

नव- वर्ष की शुभ कामनाएं ....


नव- वर्ष  की सभी मित्रों को ढेर सी शुभ कामनाएं ....
नए वर्ष में लें कुछ नया संकल्प .......
कर गुजरें कुछ ऐसा जो बना दे जीवन अपना और सबका सुंदर
निर्मल बने तन और मन ,नेक बने विचार ,स्वभाव
कर गुजरने का परायों के वास्ते उपजे जज्वा ,ऐसा बने मन
घर -भीतर गर फैला सकें शांति और सुकून का परचम
तो बनेगा यह समाज सुंदर और होगा यह देश उत्तम
ईमानदारी ,दया ,नेक -दृष्टि का पाठ पढाएं गर नौनिहालों को
तो शायद कुछ दामिनी जैसा नर्क भोगने से बच सके हमारी नस्ल
बच जाएँ कुछ आसाराम ,तेजपाल सरीखे भेदियें बनने से हमारे पुत्र
बदलना होगा हमको अपना रहन-सहन का तरीका और सोचना होगा कुछ नया
सिखाना होगा अपने नौनिहालों को और ढालना होगा खुद जीवन में
शायद नए साल के लिए कुछ तो विचारणीय प्रश्न हैं सुरसा की मानिद मुख खोले
चेतों मित्रों ,चेतो इस नव- वर्ष में कुछ कर गुजरने का संकल्प लो ...........

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

शीत लहर






क्या लिखें ? कैसे लिखें ?शीत लहर ने किया सब शून्य
दिल ,दिमाग सब शून्य ,लेखनी से निकले शब्द भी शून्य
शीतलहर ने अभी शुरू ही किया है दिखाना अपना प्रकोप
छाया चहुँ और गहन कुहासा ,खिले गुलाब ,देहलिया सब ओर
बगियें हुईं सुवासित ,फूलों की अद्भुत छठा बिखेरे सुगंदसब ओर
कांपते गरीब ,नौनिहाल ,वृद्ध दशा उनकी शोचनीय ,अत्यंत मार्मिक
तो कहीं बढती शीत लहर ने बदला जीने का ढंग
 दारू ,मुर्गा .मौज मस्ती का है उनके वास्ते यह मौसम
तो कहीं चित्डा गुदरी में है लुका -छिपी खेलता बदहाल परिवार
इंतज़ार में हैं सूरज की एक किरण की रौशनी का उसको
शायद कर दे कुछ गर्म उसकी कांपती हडियों को थोड़ी ही देर के लिए
फिर रात्रि में शीत लहर में तडपना तो अब हो गया उसकी आदत में शुमार

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

merry- chrismas

क्रिसमस पर कहते हैं कि सांता  आता है ढेरो सौगाते लेकर
छोटे -बड़े सबको बांटे है वो दिल के द्वार खोलकर
गरीब -अमीर सब को देता है भेद -भाव भूलकर
तोहफे तो सबको ईश्वर भिजवाता है अपना दूत भेजकर
पर हम तो यूँ ही रोते रहतें हैं अपनी बदकिस्मती पर
कभी ,कुछ चड सोच कर देखे उस रहनुमा की गुरवत पर
पर ना ........उसकी हर कदम बरसती रेह्नुमाएं
 हमको ना दिखती दिन में एक भी बार
सौ दरवाज़े बंद ,पर खुला दरवाज़ा ना दीखता एक भी बार
कितनी मेहर बरसाता है रब हम पर हर बार
संता का रूप तो वो धरता है साल में एक ही बार
पर उस फरिस्ते का नूर तो बरसता ,साल के हर दिवस बार बार .............
.

शनिवार, 21 दिसंबर 2013




जब बच्चा हो बीमार ,माँ का दिल रोये बार -बार
पर करे वो क्या मचा ना सकती हाहाकार
दिल में होती चुभन ,दिमाग होता शून्य बारबार
अपने हिस्से का दर्द झेलना ही होता है हर किसी को
बरना माँ बच्चों की सारी तकलीफें समेट लेती दामन में अपने हर बार
कोई शै भी कदाचित ना चुभा सके दर्द का काँटा उसके नौनिहालों को
मां का दिल रब से दुआएं यह ही मांगे बार -बार ,हर बार ..............

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

भाग्य -सुख

हर कोई चाहता है आसमान से तारे तोड़ लायूं
पर विधाता ने यह सुख सबको नहीं है बांटा
कहीं अगर जाता विधाता इस बटवारे को करना भूल
तो यकीनन हम कर बैठते गगन को तारों से हीन समूल
बिरलों को ही दिया है उसने यह अधिकार अपने कर से
कुछ तो साथ देता है ईश प्रदत्त वरदान और कुछ संवारती है उसकी मेहनत
कुछ बदा होता है उसकी नियति में  और शायद कुछ उसके कर्मफल
शायद पिछले जन्म के पुण्य और पाप भी तय करते हैं उसका इस जन्म का लेखा -जोखा
अब अगर सब सितारें बैठें आपकी भाग्य -कुंडली में सही ठिकानो पर
तभी मिलता है सुख आपको आसमान से तारे तोड़ने का ,भाग्य चमकाने का

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

नौकर पुराण




अलसाई.शिथिल .सपनों में रहती अक्सर वो खोई
अभी -अभी ही तो वो देख रही थी सुंदर सपना
लगातार बजती दरवाजे की घंटी ने था तोडा सपना
बाई का था मरद खड़ा दरवाजे पर यमदूत सा
लाल पान -मसाले से रंगे दांत ,मुख से आती मदिरा की गंध
साहब -मेमसाहब के उड़ गए होश देख उस दानव को
आज हम दोनों ना आ सकेंगे काम पर बताने को था आया
बर्तन का ढेर रसोई में ,बच्चों का स्कूल ,आफिस की फाइलों का अम्बार
 ,नौकरों पर बढती निर्भरता ने बना दिया है पंगु हमारी सबकी जिंदगी को
प्रातः उठते ही ना ज्ञान , ना भगवान बस रहता है सिर्फ बाई का ध्यान
हिन्दुस्तानी औरत तो बस डूबी रहती है सारी जिंदगी इस  नौकर पुराण में        .........

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

मनवा की गति है न्यारी .............



हमारा मन समुंदर की मानिद ही है शायद
समेटे है मन ,समुंदर भांति अतुल गहराई
लहरों सम आते ढेरों उतार -चडाव
पा ना सका कोई इस मनवा की गहराई
सागर है समेटे ढेरों अदुलित राशि अपने दामन में
मिनटों में ज्वार -भाटा ,तत्काल गज़ब का ठहराव
अद्भुत शांति ,दिखे ऊपर से ना पाए कोई अंदर का उतार -चडाव
ना जाने कोई मन का गम -और देखे उसका दर्द
क्या सागर की लहरें गिन पाया है कोई ?
कदापि नहीं ,,,इस मनवा की भी गति है न्यारी
पल में है शांत .और पल में ही है दुश्वारी 

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

बेटियां .




कितनी बदरंग ,और बदसूरत जिंदगी पाती हैं यह बेटियां .
कोख में आते ही माँ को रुलाती हैं यह बेटियां


जीवन मिल जाये तो खुद गहरे जख्म पाती हैं यह बेटियां
जवान हुई नहीं कि शोहदो कि छेड-चाड झेलती हैं यह बेटियां
माँ -बाप के ताने ,घर -भीतर की मार झेलती हैं बेटियां
सप्तपदी होते ही एकायक समझदार हो जाती बेटियां
पीहर और ससुराल के बीच अपना घर दूंद्ती रह जाती बेटियां
माँ कहे ससुराल तेरा घर ,सास सुनाये तेरा मायेका ही तेरा घर
चक्की के पाट की मानिद पिसती हैं यह बेटियां
पीहर और ससुराल दोनों की इज्जत का बोझ ढोतीहैं बेटियां
ना माँ के काँधे सर रख व्यथा कहे न ससुराल बताती हैं यह बेटियां
दोनों घरों की लाज बचाने को खूबसूरती से झूट बोलती हैं बेटियां
बूडे माँ -बाप की जिंदगी की खातिर भाई से भी भिड़ती हैं यह बेटियां
इतनी खूबियौं के बाबजूद भी कोई ना चाहे जनम ले अंगने बेटियां ..........

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

,बढती उम्र





सब कहते हैं कि बढती उम्र  है देती बुडा इंसान को
नहीं ......कदापि नहीं ,सिर्फ दो चार अपवादों को छोडकर
आम इंसान तो रोटी कीजुगत में ही हो जाता है बुडा
परिवार के वास्ते छप्पर ,लिंटल डलवाते सरक जाती है आधी उम्र
रही- सही  कसर पूरी कर देती है ,उसकी घर बैठी जवान बेटी
खेत में बढती है नित चार अंगुल ककड़ी पाती हैं सीरत वैसी यह जवान बेटियां
बढता दहेज का दावानल ,सड़क पर बड़ते शोहदे बस काफी हैं बुडा देने के लिए
बच्चों के भविष्य के सपनो का नित टूटना -बिखरना ,फिर रोज नए खाव्ब
असमय ही दे जाते हैं ढेरों झुर्री ,सलवटें और निस्तेज काया .......
आम आदमी तो यूँ ही असमय पहुँच जाता है जिंदगी के आधे सोपान पर
उच्च- बर्ग जैसे अपनी मुट्ठी में जकड लेता है बुढापा
मेकअप की परतों के नीचे ,शानोशौकत के आवरण में छिपा लेता है बुडापा
भरा पेट ,बदन पर कीमती लिबास सब कुछ छिपा लेते हैं बुडापा
न कल की फ़िक्र ,ना भविष्य का अन्धकार .कोसो दूर रहता इनसे बुडापा

मंगलवार, 12 मार्च 2013



गए थे पिछले पखवारे सैर करने को बैंकाक ,पटाया 
मन था उत्साह से लबरेज़ ,विदेश यात्रा ने था मन को लुभाया 
ढेरों ख्वाब ,अनगिनत सपने थे मन में संजोये ,मन खूब था हर्षाया 
थोड़ी हकीकत ,और आधी अधूरी जानकारी भी थी उस देश की 
पर जाकर जो देखा उस से मन और आत्मा दोनों का वजूद थर्राया 
क्या स्त्री सिर्फ भोग्या है ,सिर्फ इस्तेमाल के वास्ते ही है बस उसका वजूद 
कैसे कोई देश सिर्फ अपनी तरक्की का रास्ता औरत को बनाकर हथियार 
खोज सकता है ,सोच सकता है और मिटा सकता है उसका अस्तित्व 
ढेरो देखे पुरुष जो बन रहे हैं स्त्री कमाने को ढेरों पैसा और दूंढ रहे हैं ख़ुशी 
ओढ़ कर नकली मुखोटा ,जी रहे हैं नकली स्त्री बनकर ,............
लड़की जो जन्मते ही मान ली जाती है माँ-बाप की आमदनी का जरिया 
कैसे कोई माँ-बाप धकेल सकते हैं उसको जिस्मफरोशी की गहरी खाई में ?
नजर डाली अपने ऊपर तो पाया हम भी कुछ कम नहीं उन विदेशियों से 
वो जन्मने के बाद लड़की की आत्मा का हनन कर रहे हैं और हम ??
हम तो गर्भ में ही उसकी आत्मा और उसका वजूद मिटा डालते हैं 
पर दोष तो दूसरों का ही दीखता है ,ऐसा ही सदेव होता है 
इतना व्यभिचार ,ताज़े गोश्त की मंडी ,कलेजा था हलकान 
सुनने और देखने में है बहुत फर्क यह मन आज था जान पाया 
औरत तो बस दिख रही थी हर मोड़ पर बिकती भेड़ -बकरी की  मानिद 
और बाज़ार सजा था बहुतरे काले ,गोरे ,बूड़े और नौजवान खरीदारों से 
औरत का यह रूप था हमारे लिए अनजाना जो खुद को रही थी परोस 
हर किसीको  सर्फ और सिर्फ कुछ चमकते सिक्के और डॉलर के वास्ते 
पैसा बहुत जरूरी है जीने और जिन्दगी के वास्ते 
पर यूँ और इस रूप को न मन था आखिर तक स्वीकार पाया ...........

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013



कब आया मधुमास और कब बीता मधुमास ?
ना दीखी फूलती सरसों ,ना भ्रमर की फूल को थी आस 
ना पीत बसन में थी कोई ,गोरी ना पिया मिलन की आस 
भोजन थाल में भी ना थी पीले ,केसरिया चावल की सुवास
ना फूलता दीखा उपवन में कहीं अमलतास ,सोया था जैसे मधुमास
धरा सूनी ,नभ भी था सूना क्यूंकि बसंत तो बस सिमट रहा है साल दर साल
वन ,उपवन ,बाग़ -बगीचे तो हमने सब समेटकर बना लिए बोन्साई
धरा से आकाश तक सब मानुस ने लिए समेट अपने भीतर अपने साथ
कहीं सिमट ना जाएँ यह त्यौहार भी किताबों और कहानियों की मानिद हमारे साथ
ना पतंगों का जोश दीखता नौजवानों में ,ना बच्चों में उमग पतंग काटने और लूटने की
 कुछ ने तो ओड़ लिया जामा आधुनिकता का ,कुछ पर हावी है परीक्षा का हौवा 
बदल गए हैसब माएने  त्यौहार होने और मनाने के ,बदल गया है नजरिया सबका
भविष्य में किताबों में पड़ा करेंगे की होता था बसंत नाम का भी  त्यौहार 

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013



क्या बोलें  ,?क्या लिखें समझ से है सब परे 
दिल और जज्बातों के पन्ने हैं सब के सब कोरे 
विष की चाशनी में लपेटकर शब्दों को परोसने की कला 
न सीख सके और रहे जिन्दगी की कक्षा में नाकामयाब 
बहु -भांति चाहा सीखना पर न हो सके कभी कामयाब 
जीने के लिए जो है बहुत जरूरी फलसफा हो गए उसमें फेल 
समेटना चाहा इस जहाँ को मुट्ठी में अपनी पर बची थी कुछ ही रेत 
सोचा बहुत ,मंथन किया पर मिला न कोई ओर और छोर  

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

उत्पीडन

ना कोई शब्द .ना कोई अलफ़ाज़ बचे हैं आज हमारे पास
सब कुछ चिंदी -चिंदी उड़ गए ,बह गए समूचे दर्द के दरिया में 
थोडा -थोडा तो हम रोज़ मरती ही थी कुदरतन इस समाज में 
क्यूंकि हम लड़की जो जन्मी थी माँ के गर्भ से ,इस दुनिया में 
कभी राह चलते शोहदों  ने किया था दुश्वार ,और छीन लिए एहसास 
 सारे गिद्ध रोज़ ताकते ताज़ा मांस अपनी अपनी मंडी का 
किसको और कैसे मिलता जरा भी ना भान रहता अपनी अपनी बेटी का 
क्यूंकि हम लड़की जो जन्मी थी माँ के गर्भ से ,इस दुनिया में 
बहुत हो चुका अब अत्याचार मासूमों पर ,अब तो उठो और चेतो 
घर में ही सिमट जाएगी जिन्दगी अब बेटी की 
देश के नेता तो कुछ कर ना सकेंगे ,खुद हैं जो खुनी और बलात्कारी 
आवाम को ही करना , बेटिओं को खुद लड़ना होगा 

  श्वर प्रदत्त नेमतों की खुशियों के अहसास से महरूम क्यूँ रहते हम स्वस्थ काया सबसे कीमती तोहफा है ईश्वर का जिसमें जीते हैं हम दुनिया में बेशु...