शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

 मौनी अमावस्या पर हुई दुखद घटना पर हार्दिक संवेदनाएं

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निकले थे घर से संगम पर स्नान करने इलाहबाद ,महाकुम्भ का पुण्य कमाने
कितनी उम्मीदों ,अरमानों के साथ निकले थे घर से वहां डुबकी लगाने
पाई-पाई जोड़ी थी बरसों से कुम्भ जाने को, बरसों का सपना साकार करने को
सपरिवार चले थे घर से अनंत यात्रा की ओर ,शायद जीवन के आखिरी तीर्थ को
लापरवाही गैरों की ,कीमत चुकानी पड़ी जान देकर कितने परिवारों को
बिचड़ गए परिवार अपनों से ,कितने बच्चे हुए यतीम मौनी अमावस्या को
--रोशी 

 मेरे देश की कहानी खुद उसकी जुबानी ....

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सोने की चिड़िया के नाम से था में विश्व में जाना जाता
मुगलों ने ,काफिरों ने था मुझको सदेव खूब लूटा- खसोटा
मेंने था बमुश्किल खुद को बड़े कष्टों तकलीफों से समेटा
मेरे परिवार का विभाजन कर डाला ,मेरी आत्मा को विदीर्ण किया
हिकारत से थे जो देखते मुझको पडोसी मुल्क उनको है मेरी सुध आई
जल ,थल ,नभ सब कुछ है मुट्ठी में मेरी,कोई मुश्किल ना मुझको रोक पाई
बेशक सभी कौमें लड़ें आपस में पर सीमा पर हैं मुस्तैद एकजुट सदेव सभी भाई
पनाह मांग रहे पडोसी मुल्क मुझसे ऐसी शख्सियत मुश्किल से है अब मैंने पाई
विश्व में है लहराता मेरा परचम ,अंतरिक्ष में भी अपनी मैंने अब धाक है जमाई
सौदर्य ,शिक्षा ,सिनेमा ,हर छेत्र में है मेरी अब पताका ,शोहरत बुलंदी से छाई
सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा यह ही धुन आज सब की जुबां पर छाई
--रोशी



 पर्यटन ,देशाटन देते हैं जिन्दगी को बेहतरीन रंग

परिवार,मित्रों के साथ गुजारा वक़्त दे जाता बहुरंग
रोज़मर्रा की जिन्दगी सबकी गुजरती उलझनों के संग
अनिद्रा ,अवसाद की गिरफ्त में फंसे हुए हैं हम सब
बीमारियों ने समेट लिया है सबको अपने आगोश में
कुछ लम्हे दे जाते हैं नव चेतना सिकुड़ती सिमटती जिन्दगी में
अपनी ख़ुशी के लिए कुछ वक़्त है बहुत जरुरी जिन्दगी में
--रोशी



 सहनशीलता ,सामंजस्य ,धैर्य समाप्त होता जा रहा है आजकल के युवा पीड़ी में

पति -पत्नी ,भाई -बहन बाप -बेटा हर रिश्ता बेमानी होता जा रहा है कलयुग में
आदर , मान- सम्मान सब पुरानी बातें होती जा रही हैं ,लुप्त होती जा रही हैं
ना तो सुनना कभी सीखा नहीं शायद बचपन से ही सब ख्वाहिश पूरी हो जाती हैं
एक दूजे को बर्दाश्त करना मुश्किल होता जा रहा आज के ज़माने में
एकल परिवार सबसे बड़े कारण बनते जा रहे हैं इस मसले का इस ज़माने में
--रोशी



 हाड़ गला देती यह शीतल वयार काटनी मुश्किल यह पूस की रात

गर्मी में कितनी प्रिय लगती जब तन को छूती है यह शीतल बयार
सड़कें पड़ी सुनसान ,बस कभी श्वानों के भौकने की देती सुनाई आवाज़
ठंडी भट्टी में छिपकर रात काट देते निरीह प्राणी ,एकमात्र सहारा होता हर रात
भीषण कोहरा की चादर ने समेट लिया है जनजीवन को अपने आगोश में
दूर तक ना दिखता धुंध मे ,सूरज ने भी मुख मोड़ लिया है इस मौसम में
आसमान से पानी की बूंदे गिरती हैं,बर्फ मानो इकठ्ठा हो उपर आसमान में
रोज़ी -रोटी की जुगाड़ में मजदूर निकलता है घर से इतने नामाकूल मौसम में
--रोशी

  मौनी अमावस्या पर हुई दुखद घटना पर हार्दिक संवेदनाएं --------------------------------------- निकले थे घर से संगम पर स्नान करने इलाहबाद ,महा...