पैदा जब होती हैं, इस घिनौने संसार में तब भी दुःख देती है
बड़ी जब होती हैं शोहदे छेड़ते हैं तब भी दुःख देती हैं
ब्याह कर जाती हैं ससुराल और झेलती हैं पीड़ा तब भी दुःख देती हैं
छुपाती हैं ठेरों गम, तकलीफे अपने दामन में तब भी दुःख देती है
जब कभी झेलती हैं पुरुष का दम और दर्श तब भी दुःख देती है
सास- ससुर , देवर नन्द के कटाक्छ हंसकर झेलती हैं तब भी दुःख देती हैं
रखती हैं कदम जब मातृत्व की ओर और उठती है तकलीफें तब भी देती दुःख हैं
झेलती हैं मातृत्व पीड़ा का दारुण दुःख तब भी दुःख देती हैं
और जब वो बनती हैं बेटी की मां और सहती हैं अत्याचार
पारिवारिक क्लेश , पति का आतंक तब भी दुःख देती हैं
आखिर ये सब बेटियां ही कियूं सहती हैं. ?