रविवार, 14 जुलाई 2024


                                                                                                                                                                        मां -बाप को नज़र के सामने अशक्त होते देखना कितना तकलीफ देह होता है जिनकी आवाज़ से चकता था घर -आँगन उनका यूं मौन हो जाना चुभता है चलना सिखाया था जिन्होंने ऊँगली पकड़ आज बिन सहारे कदम ना चलते एक एक शब्द सिखाया था जिन्होंने जतनों से आज उनका ज्यादा बोलना अखरता है जिनके हर फैसले होते थे पत्थर की लकीर आज उनका हर मशवरा बेमानी लगता है रसोई महकती थी जिनके सुस्वादु भोजन से आज कांपते हाथों से दो निवाले खाते हैं हमारे पालन पोषण में गुजार देते जो जवानी अपनी आज इतने बूड़े लगते हैं जो माँ रोज़ सजाती थी खुद को सिन्दूर और महावर से रंगों से नाता तोड़ देती है पिता जो जाते थे तैयार हो दफ्तर दो जोड़ी कपड़ों में सिमट जाते हैं उम्र का तकाज़ा,जिम्मेदारियों का बंटवारा ,नई नस्ल से अलगाव कर देता अशक्त है जन्मदाता को यूं बूडा ,लाचार ,परआश्रित देखकर दिल दिमाग परेशां होता है

--रोशी
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