मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

अबला

"अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी" "आंचल में है दूध और आँखों में पानी"
पढकर, लिखकर और सुनकर ही बड़ी हुई थीं मै
बचपन में था सोचा की कितना कमजोर बना दिया हमको
पर पाया था कहीं भी कोई कोई भी ना बदलाब जवानी में
तुम लड़की हो, लड़की की तरह रहना, खाना पीना और सोना
बहुत सी आजादी भी थीं, पर साथ ही बेड़ियाँ समाज की
सोचा अभी क्या, बदलाब तो आयेगा ही समाज में ?
हम हो तो गए आधुनिक पहनाबे में, रहने-सहने में
पर जरा भी तो ना बदला समाज देने में ताने ?
" नो वन किल्ड जेसिका" देखकर याद आ गयी "सुभद्रा जी कि कविता"
पहले दी थी सीता ने अग्निपरीक्षा, अब मार दी गई "जेसिका"
आज "शीलू-निषाद" हो या हो वो "पांचाली"
चीर हरण तो हर युग में हुआ ही है उस "अबला" का
आज बन गयीं हूँ नानी पर फिर भी समझाती हूँ हर वक्त यही जुबानी
कल मेरी माँ मुझको देती थी यही नसीहत बताकर कहानी
कि लड़की-जात ही है देने को क़ुरबानी ?
आज बताती हूँ यही अपनी "बेटी" को कि वो भी रखे ध्यान अपनी "बेटी" का
इस बहशी समाज सोसायटी और घर भीतर-बाहर फैले दरिंदो से
क्यूंकि यह तो हर वक्त ढूँढते है "जेसिका और शीलू" को लेने उनकी क़ुरबानी 
जरा भी ना बदली - ना बदलेगी यह परिभाषा की अबला जीवन, हाय तेरी यही कहानी. .......?




17 टिप्‍पणियां:

Sushil Bakliwal ने कहा…

आंचल में दूध और आंखों में पानी...

कैसे बदलेंगे सामाजिक मनोविज्ञान को ?

Sunil Kumar ने कहा…

बदलेगी यह परिभाषा .....sundar rachna .badhai

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अबला जीवन भी सबल होगा, मन में विश्वास है।

Patali-The-Village ने कहा…

अबला की ये परिभाषा एक दिन जरुर बदलेगी|

विशाल ने कहा…

बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने.
सोचने को मजबूर करती है.....
आप की कलम को शुभ कामनाएं.

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

कई बेटियां बदल रही हैं अबला की परिभाषा ..रोशी जी
पर शायद अभी भी समाज में बहुत कुछ बदलना और स्वीकार किया जाना बाकी है.....

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

nice post lekin ab samaj badal raha hai

निर्मला कपिला ने कहा…

अज की बेटियाँ जरू्र इसे बदलने के लिये प्रयासरत हैं कभी न कभी जरूर बदलेगी। शुभकामनायें।

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

जी हां... सहस्त्र सालों से चलती आ रही यह त्रासदी कुछ एक दशक में नहीं बदलने वाली ... अभी बाहरी तौर पर बदल भी रहा हो तो अंदर से नीव तो वही है... आपका लेख सच की हकीकत दिखता है......कल चर्चामंच पर होगा आपका लेख और ब्लॉग .. आभार
http.charchamanch.blogspot.com

Khare A ने कहा…

सही कह आपने , अग्रजा , परिस्थितियां आज भी कुछ ज्यादा नही बदली हैं!
बहुत ही सुन्दर कविता

Kunwar Kusumesh ने कहा…

अबला धीरे धीरे सबला हो रही हैं, बहुत-सी तो सबला हो भी चुकी हैं और आदमियों के सर पे तबला बजा रही हैं.

संतोष पाण्डेय ने कहा…

सुन्दर कविता.बढ़िया लिखा है.

Sadhana Vaid ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Sadhana Vaid ने कहा…

बहुत ही संवेदनशील रचना है शबनम जी ! इसमें कोई संदेह नहीं कि चंद अपवादों को छोड़ दें तो हमारा आधे से अधिक भारतीय समाज अभी भी संकीर्ण, रूढीवादी , दकियानूसी एवं पुरातनपंथी मान्यताओं को ओढ़े हुए जी रहा है ! महानगरों में अति आधुनिकता और पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण ने हालात बिगाड़ दिए हैं ! जो युवतियां साहस दिखाती हैं उन्हें झुलसना तो पडता ही है और कभी कभी दुर्भाग्यवश कतिपय क्षुद्र मानसिकता वाले दरिंदों की भेंट भी चढ़ जाना पड़ता है लेकिन बच्चियों को सहेज कर, सम्हाल कर, हिफाज़त करते हुए आगे तो बढ़ाना ही होगा ! माता पिता और अभिभावकों की जिम्मेदारी बढ़ी है कि वे बच्चियों का उचित मार्गदर्शन करें ! इतने अच्छे आलेख के लिये बधाई एवं धन्यवाद !

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

आज ४ फरवरी को आपकी यह सुन्दर भावमयी पोस्ट चर्चामंच पर है... आपका आभार ..कृपया वह आ कर अपने विचारों से अवगत कराएं

http://charchamanch.uchcharan.com/2011/02/blog-post.html

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

नारी की व्‍यथा कथा को सुंदर ढंग से प्रस्‍तुत किया है आपने।

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ध्‍यान का विज्ञान।
मधुबाला के सौन्‍दर्य को निरखने का अवसर।

Kailash Sharma ने कहा…

आज स्त्री अबला नहीं रही है..समय के साथ वह भी सबला बनने की पूरी सफल कोशिश कर रही है.

                                  दिनचर्या   सुबह उठकर ना जल्दी स्नान ना ही पूजा,व्यायाम और ना ही ध्यान   सुबह से मन है व्याकुल और परेशा...