जिन्दगी का पहिया इतनी तेज़ी से रहा था भाग
हम सोच रहे थे कि हमने तो इसको बाँध रखा है मुटठी में
पर वो तो खिसक रहा था मुट्ठी में बंद रेत की मानिद
कब हो गया हाथ खाली हमको पता ही न चला
और समेट भी ना सके एक भी कण उस रेत का
जो समय जाता है गुजर लाख चाहो तो भी न पा सकोगे ऊम्र भर
क्योँ नहीं समझ पाया मानुस वक़्त रहते यह गणित
बस फिर बटोरता रहता है रेत के टुकडो को जीवन भर
1 टिप्पणी:
जीवन रेत सा बहा जाता है, इन दृश्यों को आओ समेट लें।
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