रविवार, 9 फ़रवरी 2014

द्रुपद -सुता की पीड़ा




नियति को कब और क्या है हमारी किस्मत में मंजूर 
सबब इसका है जानना नामुमकिन ,हमारी पहुँच से है दूर 
चंद लम्हों में बदल देती है किस्मत, होता है वही जो रब को है मंजूर 
चिर -प्रतीक्षित प्रियतम से व्याह की कल्पना में डूबती-उतराती दृपद्बाला 
खोई थी उसकी प्रतीक्षा में कुब आएगा वो बांका सलोना श्रेष्ठ धनुर्धर 
कभी निराशा से देखती धनुर्धरों से विहीन मंडप ,और कभी निराश पिता को
कि शायद आज रह जायेगी बेटी बिन व्याही और होगा परिहास समस्त संसार में
पर विधना ने तो कुछ अद्भुत खेल लिखा था उसके भाग्य में .........
जंगल जाते -जाते मुड गए राजकुमार उसके घर आँगन में
मन था प्रमुदित द्रोपदी का ,पा गयी थी वो मनवांछित वर
देखा था जिसका उसकी आँखों ने हर प्रहर ,हर घडी सपना
बेध दिया चड भर में सर्वश्रेठ धनुर्धर ने मछली के नेत्र को
स्तंभित रह गयी थी सभी वीरों की सभा ,निकली सबके दिल से एक आह
पिता ,पुत्री ,भाई सबका पूर्ण हुआ सपना खिल उठा था तन -मन द्रुपद सुता का
अभी वासुदेव का खेल था बाकी जिसका ना था किसी को गुमां
जानते थे वासुदेव कि पाँचों पांडवों का तेज ,बाहुबल,शौर्य
धरा पर कोई सम्हाल सकता है तो सिर्फ वो है द्रुपद कन्या
मुख से माँ के कहला दिया कि बाँट लो भिक्षा सब आपस में
पल भर में हुआ बज्रपात नवबधू के सपनों का ,बिखरे सारे अरमान
विधना कौन सा खेल खेलेगी पल भर में ना हो सकता मानुस को गुमान

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (11-02-2014) को "साथी व्यस्त हैं तो क्या हुआ?" (चर्चा मंच-1520) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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बसंतपंचमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

kavita verma ने कहा…

sundar ...

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