शनिवार, 11 दिसंबर 2010

सुबह

सुबह  उठकर ना
जल्दी स्नान  ना ही पूजा,  व्यायाम और न ही ध्यान
सुबह से मन  है व्याकुल और परेशां
कब कहाँ खो गया मन और ध्यान ना थी कोई पेरशानी  न था कोई व्यवधान
मन था निरंतर  विचलित तीव्र गतिमान
सुबह से था कौन किधर न था ध्यान
शायद यह था मौसम और प्रकृति  का तापमान
किया था जिसने हमको निरंतर परेशां
घर भीतर बहार अन्दर था मन चलायमान
बढती गर्मी उमस बाताबरण का था व्यवधान
निरंटर आग उगलते शोले
था कोई नहीं समाधान
इश्वेर ही दे सकता है
अब शीतलता का तापमान
पशु पक्षी नर नारी सभी व्याकुल थे चलायेमान
हे प्रभु कर दो दया भर दो सागर नदी और आसमान
बरसा दो नेह अमृत धरा पर घम घमासान .............

2 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना । आभार
ढेर सारी शुभकामनायें.

SANJAY KUMAR
HARYANA
http://sanjaybhaskar.blogspot.com

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