सुबह से होता था जी भरकर उधम ,और हंसीठठठा
ना कोई था समर कैंमप ,ना था होम वर्क का टनटा
दिन भर थी बस हंसी -ठिठोली और था बस मस्ती का फनडा
कहाँ गए वो दिन ,वो खिलखिलाहटों से चहकते घर आँगन
सब कुछ भुला दिया इस जीवन की आपाधापी ने दिन -प्रति दिन
काश हम लौटा लौटा पाते न न्हे नौनिहालो का मासूम बचपन
जहाँ घुमते वो निर्द्वंद ,लेते भरपूर छुट्टी का वो भरपूर आनंद
बर्फ का गोला .चुस्की और कच्ची कैरी के चटकारे बड़ा देते जीवन का रंग
कभी जाते थे छत पर ,और सोते थे खुली हवा में लेकर मच्छर दानी का आनंद
पर अब तो हो गयी सब भूली -बिसरी बातें और ना रहे वो आनंद