नारी की सुबह होती ही है हँसते -मुस्कराते चाहे सारी रात गुजरी हो करहाते
शक -शुबहा भी ना होने देती हाले -दिल का ,उसमे सब समेत जाती है
महिलाएं तो प्रातः कल से ही अपने मन माफिक हाव -भाव बदलती हैं
शायद यह उनकी मजबूरी ,आदत है ईश्वर प्रदत्त गुण को खूब भुनाती हैं
कभी बच्चों की खातिर ,कभी घर-परिवार के वास्ते नारी मुस्कराती है
मन में हो गहन विषाद ,तड़प पर मजाल है किसी को भनक ना लगने देती है
यह कला बस खुदा ने नारी को ही बक्शी है ,इसमें उसको ईश्वर ने पारंगत बनाया है
अपनी पीड़ा भीतर समेटना ,उपर से ज़ोर -ज़ोर से हसना अद्भुत है यह कलाकारी
बेजोड़ कला पायी है नारी ने मन में हो उसके चाहे कितनी भी दुश्वारि
रोशी --
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