साठ फीसदी भारतीय इंसान की ज़िंदगी बस स्वप्न देखते गुजरती है
जन्मते ही खाने -पानी की जुगाड़ फिर बीमारी की चिंता सताती है
स्कूल तो बहुत दूर पहले काम -धंधे पर बच्चे को लगाने की चिंता सताती है
सर पर छत ,तन पर कपड़ा सिर्फ इसकी जुगत वक़्त से पहले उसे बूड़ा देती है
बच्चों के मुस्तकबिल का सपना तो उच्च बर्ग ही देख पाता है ,सोच पाता है
आम आदमी समूची ज़िंदगी रोटी ,कपड़ा और मकान से आगे ना जा पाता है
समूची दुनिया चाँद पे कदम रखने के करीब है पर ,बच्चे को चंदा -मामा कह कर बहलाना बस उसका नसीब है
फसल कट कर घर आ जाए ,वर्ष की हाड़ -तोड़ मेहनत का हिस्सा उसको मिल जाए यह भी उसकी किस्मत है
बच्चों को बस अपने पैरों पर खड़ा करने में ही ,दिन -रात की जुगत उसको उलझाए रखती है
दुनियावी ऐशों-आराम तो सिर्फ कुछ ही इन्सानो की किस्मत में है ,बाकी की ज़िंदगी तो हमारी सोच से भी परे है
सिर्फ एक टुकड़ा रोटी का ,दो कतरा पानी ,शरीर ढकने को कपड़ा बस इतना ही मिलना बड़े नसीब की बात होती है
रोशी --
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