मिलते हैं रोज़ अनेकों बच्चों से ,हर उम्र और वर्ग के हम प्रतिदिन
रह जाती हूँ अचंभित देखकर उन बालकों का देखकर मोबाइल- प्रेम हर दिन
कुछ आधुनिकता का असर ,कुछ माता-पिता की अपनी व्यस्तता निस-दिन
व्यस्त भाग -दौड़ भरी ज़िंदगी ,एकल परिवार भी हैं शायद इसके जिम्मेदार
कुछ तो सोचना ही होगा परिवारों को और निकालना होगा ठोस उपाय जरूर
नानी -दादी ,माता -पिता जब खुद व्यस्त हैं अपने मोबाइल के साथ दिन और रात
लोरियाँ-कहानियाँ सब हो गयी गुजरे जमाने की दास्तां ,अब मोबाइल का चाहिए बच्चों को साथ
नौनिहालों को रोज़ देखती हूँ मोबाइल के लिए रोते -कलपते ,मानो हो वो उनका अलादीन का चिराग
खेल -कूद ,भाग -दौड़ और आपसी गुफ्तगू के बदले सन्नाटे ने घेरा है घर -परिवारों को आज
सब अपने -अपने खोल में बैठे हैं सिमटे बड़े -बूढ़े और आज के नौनिहाल और जवान
अपना धर्म -संस्कृति ,संस्कार और परम्पराएँ तो जानने का किसी को भी ना भान
उस जादुई डिब्बी में है सारी दुनिया की जानकारी यह ही बन गयी हमारी सबसे बड़ी दुश्वारी
वक़्त रहते ना चेते हम तो सबको अदा करनी होगी इसकी बहुत ही कीमत भारी
रोशी --
5 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 29 मार्च 2022 को साझा की गयी है....
पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
वाक़ई विचारणीय समस्या है यह, समय रहते चेतना होगा।
वैसे तो हर युग की अपनी USP होती हैं .. कभी कंदराओं में पलने वाले हमारे तथाकथित धर्म, आज आलिशान देवालयों में दर्शन देते हैं, वो भी जायज़ और नाजायज़ कतारों के मार्फ़त .. शायद ...
अन्तर इतना ही है कि कल कभी 'ट्रांजिस्टर' से चिपकी रहने वाली नस्लों की अगली और आज की वर्तमान पीढ़ी 'मोबाइल' से चिपकी दिखती है। आने वाले कल में कंदराओं की तरह सारी अन्य बातें हमारे विचारों से ही लुप्त हो जाएगी और 'मोबाइल' ...
विचारणीय
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