बच्चे होते हैं मासूम और नादां
बालसुलभ नादांनियां कर बैठते हैं होकर परेशा
हम करते हैं बेबजह दंडित होकर उनको परेशा
कभी खुद पर किया गौर," हम कहाँ के सच्चे थे "?
कितनी नादांनियां,हरकतें ,शैतानियां करते थे
मस्ती ,झूठ ,उछल-कूद बेखौफ सब करते थे
आज सोच कर हंसी नहीं रुकती ,करते सब बेबकूफी थे
तो आज फिर क्यौ उसी जुर्म की सजा बच्चों को देते ?
जब हम ना थे कभी सच्चे ,फिर बच्चे क्यौ सजा भुगते ?
रोशी --
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