गुरुवार, 22 सितंबर 2011

जर्जर काया

अभी अभी गई किसी विधवा बूढी माँ की अर्थी 
जब तक जिंदा रही वो तड़पती रही सिसकती रही 
पति को जो जवानी में थी खो चुकी पर बेटे के सहारे जीती रही 
मरियल काया, सफ़ेद साड़ी, समाज के भेड़ियों के बीच जिंदा रही 
किस तरह से काटा होगा दिन और कितनी भयावह होगी उनकी रातें मैं सोचती रही 
पुत्र प्रेम में वो जीती रही, पुनः पुनः रोज़ मरती रही 
पुत्र भी न निकला कम पर अब पुत्रवधु के सपने संजोती रही
पुत्रवधु भी थी आधुनिक, उसके अपने पुत्र के साथ दम घोटती रही 
कितना दुःख विधाता ने लिखा था उसकी फूटी किस्मत में सहती रही 
पर आज हो गयी सब बंधनों से आज़ाद, आत्मा उनकी निर्वाण को प्राप्त हो गयी 

3 टिप्‍पणियां:

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

Gahan Abhivykti.... Marmik Bhav

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

संवेदनशील ...मृत्यु आज़ादी का प्रथम सोपान है

vandana gupta ने कहा…

बेहद मार्मिक मगर सटीक्।

                                  दिनचर्या   सुबह उठकर ना जल्दी स्नान ना ही पूजा,व्यायाम और ना ही ध्यान   सुबह से मन है व्याकुल और परेशा...