जगविदित है कि हम अपने कुछ गम और खुशी सांझा नहीं कर सकते हैं
कभी सामाजिक ,कभी मानसिक कई प्रकार के दवाब हमको मजबूर करते हैं
जब चाहा हंस लिए ,जब चाहा रो दिये ,पर उनको हम दूजे से बाँट नहीं सकते हैं
आखिर ऐसा क्यूँ होता है ?जब हम दिल और दिमाग के हाथों मजबूर हो जाते हैं
जग में दूंदने निकले तो सबको अपने जैसा ही पाया ,दिल-दिमाग से मजबूर पाया
हर इंसा को अपनी बन्दिशों में जकड़े पाया खुद के ,मकड़-जाल में उलझा पाया
जितने हम आधुनिकता की दौड़ में भाग रहे हैं उतने ही इस जाल में उलझ रहे
परिवारों ,रिश्तों ,अपनों को तो पीछे घर ,गांव में छोड़ आए हैं ,खुद में ही घिरे रहे
सांझा परिवार होते थे ,सारी परेशानियों का गूगल सबके पास अपने ही होते थे
हर सुख -दुख मिनटों में बंट जाते थे ,दिल -दिमाग में बस खुशियों के ढेर होते थे
सब कुछ पीछे छूटा ,और हम खुद अपने बनाए जाल में घिरते चले गए थे
रोशी --
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