जब तक जिए माँ-बाप ,एक पिछवाड़े की कोठरी में दुनिया से दूर ही रखा
दो वक़्त की सूखी रोटी ,कुछ भाजी के टुकड़े ,बरसों से था उन्होने यह ही चखा
पुरानी कथरी में बस रहते सिमटे ,दुनिया से पूरे कटे शायद यह ही था जीवन
बेटे की शक्ल देखने को थे रोज तरसते ,बच्चों के बिन बेरंग था उनका जीवन
ऊंचे ओहदे पर आसीन बेटे ,उच्च व्यवसायी पुत्र सब रहते निज दुनिया में मगन
रोटी-छत देकर कर ली अपने कर्तव्यों की इतिश्री ,बना दिया नरक उनका जीवन
श्राद्ध में भव्य पंडाल ,विविध व्यंजन परोस कर समाज को दिखा रहे निज वैभव
भूखा रखकर ,कर्तव्यों की इतिश्री कर श्राद्ध तो कर चुके उनका रहते जीवन
अब वस्त्र ,भोजन देकर क्या मिलेगा ,जब संवार ना सके वृद्ध माँ -बाप का जीवन
-- रोशी
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