शनिवार, 30 अप्रैल 2011

इंसानी रंग

देखे है हमने इस जहाँ में इंसानी फितरत के ढेरो रंग 
हर लम्हा इन्सान की फितरत के बदलते ढंग 
काश हम देख पाते झांककर दिल के अंदर 
क्यूंकि बहां तो दिखते ढेरो उल्हाने और बर्बाद ज़माने के रंग 
जीना हो जाता मुहाल और सामाजिक ढांचा हो जाता भंग 
भाई- भाई न रहता, पति- पत्नी और बच्चे 
प्रेम बत्सल्या, दोस्ती के दिखते अदभुत रंग 
अच्छा ही हुआ जो इस दिल को ढक दिया इश्वेर ने 
बरना तो खुद इश्वेर ही न संभाल पाता 
इंसानी फितरत के बदलते हर पल नए रंग ढंग


12 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बड़े विचित्र हैं, इन्सानी रंग।

Shikha Kaushik ने कहा…

बहुत सुन्दर बधाई

रजनीश तिवारी ने कहा…

bahut achchhi rachna

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बहुत सही लिखा आपने.

सादर

Sushil Bakliwal ने कहा…

अच्छा ही हुआ जो इस दिल को ढक दिया इश्वेर ने
बरना तो खुद इश्वेर ही न संभाल पाता
इंसानी फितरत के बदलते हर पल नए रंग ढंग

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

Kailash Sharma ने कहा…

अच्छा ही हुआ जो इस दिल को ढक दिया इश्वेर ने
बरना तो खुद इश्वेर ही न संभाल पाता
इंसानी फितरत के बदलते हर पल नए रंग ढंग....

बहुत सच कहा है..सुन्दर रचना

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
--
पिछले कई दिनों से कहीं कमेंट भी नहीं कर पाया क्योंकि 3 दिन तो दिल्ली ही खा गई हमारे ब्लॉगिंग के!

kshama ने कहा…

अच्छा ही हुआ जो इस दिल को ढक दिया इश्वेर ने
बरना तो खुद इश्वेर ही न संभाल पाता
इंसानी फितरत के बदलते हर पल नए रंग ढंग
Bahut anoothee rachana!

Satish Saxena ने कहा…

शुभकामनायें आपको !

Patali-The-Village ने कहा…

बहुत सही लिखा आपने|

Kunwar Kusumesh ने कहा…

अच्छा ही हुआ जो इस दिल को ढक दिया इश्वेर ने
बरना तो खुद इश्वेर ही न संभाल पाता
इंसानी फितरत के बदलते हर पल नए रंग ढंग

बहुत सही लिखा.

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

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