सर्दी का मौसम अमीरों को ही है भाया,बेचारे गरीब की तो वैसे ही लाचार है काया
गर्मी की मार तो वो झेल ही जाता है ,गिरते छप्पर में टूटी झोपडी में जी ही जाता है
दीवारों के सूराखों से घुसती प्रचंड वायु हिला जाती है गरीब की सम्पूर्ण काया
नस्तरों की चुभन से भी ज्यादा घायल कर जाती गरीब का तन और मन
बिना बिछावन के और बिना रजाई इस शीतल पूस की रात्रि में
कैसे जी सकता है इंसा ?..जिसने भोगाउसी का जाने तन ............
हाड कपाँदेने वाली ठण्ड में भी कैसे जिया जाता है इन गरीबो से कोई सीखे
बदन पर तार-तार हुई वस्त्र ,नस्तर चुभातीशीत वयार
हडियाँ तक कंपा जाती हैं अमीरों की बैठते हैं दिन भर जो हीटर ,अंगीठी को जलाये
पर यह लाचार खुद और परिवार समेटे काटते हैं कैसे पूस की रात ?
मर -मर के जीना फिर उठाना फिर मरना तो शायद नियति और जिन्दगी है इनकी
13 टिप्पणियां:
marmik kavita... sardi ka sundar chitran
यथार्थ को बयां करती हुई रचना ....
sardee garmee iksaar
gareeb ke liye
ek haddiyaa kanpaatee
dosree jhulsaatee
gareebee inse bhee badee traasdee hotee
achhee rachnaa roshiji
यथार्थ सच में बड़ा ही कड़वा है..
रोशी जी,सर्दी के कहर का गरीब
पर प्रभाव होने का आपने बखूबी महसूस
कराया है.
मार्मिक प्रस्तुति के लिए आभार.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
यही टी यथार्थ है।
सादर
बहुत ही बढ़िया
din ko jhkjhorne wali rachna.......
सजीव दृश्य हो गये, वाह !!! भावुक रंग....
sundar manviya bhavon ko vykt kari ...sundar kavita !!
मर -मर के जीना फिर उठाना फिर मरना तो शायद नियति और जिन्दगी है इनकी
har sabd dard bayan kar rahe hai garib ka !!
यथार्थ को कहती मार्मिक प्रस्तुति
आज कि दशा को बयान करती कविता
हार्दिक बधाई आपको
Nice blog.
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