बिसरा दिया है मेघों ने भी सावन में बरसना
सावन के झूले भी अमुआ की डार पर ना दिखते हैं अब
बच्चियो की मस्ती ,मेहँदी के पत्तों पर आपसी खटपट
सब हो गयी हैं शायद गुजरे ज़माने की बातें अब
ना कानों में पड़ती है किसी भी गलियारे से चूडियो की खनखनाहट
वो मेहँदी से रची हथेलियाँ अब ना दिखती हैं गावं ,कस्बो में
शायद बढता स्कुल ,आफिस का दबाब दबा रहा है पुरानी परम्पराएं
सुहागिनों का नैहर भी छूट रहा है त्यौहार पर जाने से
परंपरा अनुसार तीज पर बाबुल घर लाये और भाई राखी बंधवा कर ससुराल पहुचाये
बदल गए हैं सब मायने वक़्त ,सहूलियत के अनुसार त्यौहार मनाने के
अब कौनसा नया परिवेश बदल देगा सारे के सारे ख़ुशियों के पैमाने
3 टिप्पणियां:
अपना परिवेश स्वयं ही बनाना पड़ेगा हम सबको..अपनी संस्कृति स्वयं ही लानी पड़ेगी हम सबको।
हमें ही वापस लाना होगा उन परम्पराओं को जिन्हें हमारी नयी पीढ़ी भूलती जा रही है...
सच कहा आपने....सार्थक सन्देश
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