बुजुर्गों वास्ते रोज़ नए बनते वृद्धाश्रमों की देश में बड़ती गिनती
हमारी पीड़ी पर है बदनुमा दाग वजह सम्मलित परिवार की रोज़ है घटती गिनती
कभी हम नहीं सोचते उनके कष्ट ,तकलीफ जो उठाए थे हमारे सुख वास्ते उन्होने
एक झटके से बाहर निकाल दिया उनको ज़िंदगी से अपनी ,घर से उनके अपनों ने
दो घड़ी भी बैठकर उनका सुख -दुख क्या कभी सांझा किया था कभी हमने ?
दो वक़्त की रोटी,एक कमरा देकर इतिश्री कर ली थी अपनी जिम्मेदारियो की सदेव हमने
कभी दो घड़ी का समय था क्या हमारे पास ? उनके साथ बैठकर हंसने ,कहकहे लगाने का
गिरती सेहत ,मानसिक दशा ,की तरफ तो कभी तवज्जो ही ना थी हमारी, वक़्त ना था सोचने का
जिन बुजुर्गों ने पूरी ज़िंदगी झोंक दी, हमको इस मुकाम तक पहुंचाने में ,उनका हर पल हमारा था
हमसे शुरू होकर उनकी दुनियाँ हमारे इर्द -गिर्द थी, पर हमको अब उनका साथ ना गवारा था
एक पल ना सोचते हम कि क्या संस्कार दे रहे अपने बुजुर्गों को भेज कर वृद्धाश्रम
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