क्योँ बेटियों को उनका अपना मुकम्मल जहाँ मयस्सर ना होता है ?
बचपन में उसके दिलो -दिमाग में बैठा दिया जाता है ,पराये घर जाना है
शायद रस्मों -रिवाज़ ,घर -रसोई सीखने मात्र में बचपन गुजर जाता है
घर की देहरी के भीतर उसका बचपन घोंट और कुचल दिया जाता है
क्या सही क्या गलत का पाठ उसको जवानी तक भरपूर पड़ाया जाता है
पीहर में हर पल उसको अहसास कराया जाता है की पराये घर जाना है
दिल -दिमाग में बेटियां बैठा लेती हैं की ससुराल अब उनका अपना घर होगा
उफ़,, विदा होते ही ससुराल में उनको दूजा पाठ सुनाया जाता है
ससुराल पति का कहलाया जाता है ,बेटी को नए सबक को फिर दुहराना पड़ता है
बेटियों जिन्दगी भर ना समझ पाती,पीहर या ससुराल कौन सा घर अपना होता है ?
--रोशी
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