शुक्रवार, 20 मई 2011

दरकते रिश्ते

डर लगता है रिश्ता खोने का
क्यूंकि खो चुकी हूँ ठेरों रिश्तो को 
पहले खोया माँ को न पा सकी दुबारा उनको 
फिर टूटा दाम्पत्य नाता, वो रिश्ता भी था झूठा  
भाई को जन्म न दिया था माँ ने
तो रिश्ता था वो भी अध अधूरा
अक्सर देखकर दूसरी बहनों को मन में था कुछ टूटता
पर जो असंभव था कर न सकी थी जन्म्दयानी ये पूरा
माँ किया गईं, सारे रिश्ते भी संग गए
सगे, सम्बन्धी और रिश्तेदार सबके रंग ही बदल गए
ना रहा कोई रिश्ता- नाता पक्का और मजबूत
सारे के सारे चेहरों के परदे खुद व खुद उतर गए
हमने तो बहुत चाहा निभाना पर हम थे मजबूर
बदलते रंग, दरकते रिश्ते अब दिल को तोड़ कर
काफी आगे को चल दिए. 
क्यूंकि मैंने पाया ही नहीं 
उसे अपने भाग्य में 
तो सोचा ये भी नसीब में न था मेरे 
ये भी ख्वाहिस रही अधूरी 
अक्सर देखा बहनों को 
करते हंसी ठिठोली 
बस मैंने तो पाई बेचैनी 
जब- जब छूटा साथ अपनों का 
तब- तब टूटा दिल 
आखिर क्यूँ खोते हैं ये रिश्ते ? ... 

2 टिप्‍पणियां:

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

आखिर क्यूँ खोते हैं ये रिश्ते ?

अंतस को झकझोरती हुई बेहतरीन रचना....

aditi ने कहा…

mom u have written ur entire life in front of us in just few words..there is so much pain in u which none of us realise...mom v all take strength from u ...love u lots...

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