अस्मत बिकती है आबरू बिकती है और बिकता है इन्सान
कही लड़की बिकती , कहीं बच्चा बिकता खरीदता है सारा जहान
रिश्ते बिकते, परम्पराये बिकती, बिकता है मान और सम्मान
पति- पत्नी , भाई-बहन , चाचा- ताऊ, साली- जीजा
सारे रिश्ते है बिकते, जैसे बिकता है अख़बार
माँ -बच्चा, बेटी- पिता, सरीखे रिश्ते भी हैं बिकते
कितनी गर्त में जा रहे हैं हम, इसको क्यूँ न समझ सकते
जिन्दगी की आपाधापी में प्यार संस्कार सब हैं बेकार
नेता, अफसर, समाजसेवी और नर- नारी
गर न चेते तो क्या दे पाएंगे एक सुंदर संसार ?
देखो जरा निगाहों से कैसे बिकता है इन्सान ?
दरकते रिश्ते गिरता सामाजिक ढांचा, क्या अभी न इसको रोक सकते
क्या सही रास्ता अपनाना इतना कठिन है आज क्यूँ बिकता है इन्सान ?
4 टिप्पणियां:
very touching....
गहरी रचना।
आज के परिवेश को कहती संवेदनशील रचना
माँ -बच्चा, बेटी- पिता, सरीखे रिश्ते भी हैं बिकते
कितनी गर्त में जा रहे हैं हम,
इसको क्यूँ न समझ सकते
जिन्दगी की आपाधापी में प्यार संस्कार सब हैं बेकार
शब्द-शब्द संवेदना भरा है...
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