रविवार, 24 जुलाई 2011

बिकता है इन्सान

आज के युग में सब कुछ बिकता है इंसा खरीदता है 
अस्मत बिकती है आबरू बिकती है और बिकता है इन्सान 
कही लड़की बिकती , कहीं बच्चा बिकता खरीदता है सारा जहान

रिश्ते बिकते, परम्पराये बिकती, बिकता है मान और सम्मान 
पति- पत्नी , भाई-बहन , चाचा- ताऊ, साली- जीजा 
सारे रिश्ते है बिकते, जैसे बिकता है अख़बार 

माँ -बच्चा, बेटी- पिता, सरीखे रिश्ते भी हैं बिकते 
कितनी गर्त में जा रहे हैं हम, इसको क्यूँ न समझ सकते 
जिन्दगी की आपाधापी में प्यार संस्कार सब हैं बेकार 

नेता, अफसर, समाजसेवी और नर- नारी 
गर न चेते तो क्या दे पाएंगे एक सुंदर संसार ?
देखो जरा निगाहों से कैसे बिकता है इन्सान ?

दरकते रिश्ते गिरता सामाजिक ढांचा, क्या अभी न इसको रोक सकते 
क्या सही रास्ता अपनाना इतना कठिन है आज क्यूँ बिकता है इन्सान ?

4 टिप्‍पणियां:

neelima garg ने कहा…

very touching....

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

गहरी रचना।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आज के परिवेश को कहती संवेदनशील रचना

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

माँ -बच्चा, बेटी- पिता, सरीखे रिश्ते भी हैं बिकते
कितनी गर्त में जा रहे हैं हम,
इसको क्यूँ न समझ सकते
जिन्दगी की आपाधापी में प्यार संस्कार सब हैं बेकार

शब्द-शब्द संवेदना भरा है...

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