जिन्दगी के कुछ हिस्से उलझनों और तकलीफों से जूझते निकल गए
कब जिन्दगी के उम्र के इस पड़ाव पर आ खड़े हुए पता नहीं चला
अपने शौक ,पसंदगी तो समेट दिए बक्से में दुनियादारी में ही उलझ कर रह गए
यह कहानी है हर घर की हर मोहतरिमा खुद ही यह कहानी बयां करती है
कुछ अपना ख्वाब पूरा कर पाती है कुछ के सपने रह जाते हैं अधूरे
कुछ तो ता -उम्र अपने सपनों को जामा पहनाने में ही गुजार देतीं हैं
घर की चाहरदीवारी के भीतर ही गुजर जाती हैं यूं तो सारी जिन्दगी
परवाज़ तो किस्मत वालों को ही नसीब होते हैं ,पूरी जिन्दगी
कट जाती है एड़ियाँ रगड़ते -रगड़ते वर्ना यह बेआवाज़ सारी जिन्दगी
सुकून ,ख़ुशी खुद ही दूंढ लो इस जिन्दगी में वर्ना यह होती है बड़ी बेरहम जिन्दगी
रोशी
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