अपनी अहमियत ,रुतबा ,अक्ल का परचम निरंतर फैला रही हैं
जुल्म ,अत्याचार बहुत झेले बरसों तक ,अब मुख से कुछ बोल पा रही हैं
बेशक तकलीफें ,बंदिशें आज भी हैं बहुत उनके हिस्से में बरक़रार
अपना दुःख ,दर्द सामने आकर वयां आज वो खुले आम कर पा रही हैं
पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर भले ही आज वो चल रही हैं
आज भी समाज की प्रताड़ना ,भद्दे मजाक का शिकार वे निरंतर हो रही हैं
--रोशी
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