शीत लहर का महाप्रकोप ,कामगारों के लिए ना बदलती रोज़मर्रा की जिन्दगी ना गर्मी ,ना सर्दी शायद यह ही उनकी है नियति ,यूँ ही चलती उनकी जिन्दगी
सर्द मौसम में कल्पना से परे बर्तन,खाना,पोछा करना होती मजबूरी उनकी
नल से गिरते पानी की आवाज़ की काफी होती झुरझुरी के लिए सबकी
पेट की आग कितना कर देती है मजबूर गरीब को बे नागा खटने को रोज़
एक दिन का नागा भी बिगाड़ देता बजट उसका महीने भर का ,जाना होता रोज़
--रोशी
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